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क्या आडवाणी ऐसी ही बिदाई के हकदार थे?

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अनिल जैन

आखिरकार लालकृष्ण आडवाणी के संसदीय जीवन और एक तरह से उनके राजनीतिक जीवन पर भारतीय जनता पार्टी के कर्ताधर्ताओं ने पूर्ण विराम लगा ही दिया। अपने छह दशक के राजनीतिक जीवन में जिन आडवाणी ने अपनी पार्टी के असंख्य लोगों को चुनाव लडाने या न लड़ाने का फैसला करने में अहम भूमिका निभाई, इस बार उन्हीं आडवाणी का फैसला पार्टी ने कर दिया। उनका टिकट काट दिया गया। टिकट काटने वाले भी और कोई नहीं, वे ही रहे, जिन्हें आडवाणी ने न सिर्फ राजनीति का ककहरा सिखाया बल्कि उनको राष्ट्रीय राजनीति में पहचान भी दिलाई और जरूरत पड़ने पर उनका और उनके गलत कामों का बचाव भी किया।

पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद लालकृष्ण आडवाणी ऐसे दूसरे राजनेता हैं, जिन्होंने भारतीय राजनीति के व्याकरण को बदलने में अहम भूमिका निभाई। तीन दशक पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की सिफारिश करने वाले मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर भारतीय समाज और राजनीति की यथा स्थिति को बदलने का ऐतिहासिक कदम उठाया था। उनके इस फैसले को भाजपा ने अपनी हिंदुत्व की राजनीति के लिए चुनौती माना और उसका मुकाबला करने के लिए धर्म का सहारा लेते हुए बहुचर्चित अयोध्या विवाद को हवा दी थी।

भाजपा ने न सिर्फ वीपी सिंह की अगुवाई वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से समर्थन वापस लेकर उसे गिरा दिया था बल्कि आडवाणी खुद भाजपा अध्यक्ष की हैसियत से उग्र हिंदुत्ववादी तेवरों के साथ सोमनाथ से अयोध्या तक की राम रथयात्रा पर निकल पड़े थे। उनकी इस यात्रा से न सिर्फ देश में कई जगह सांप्रदायिक दंगे हुए थे बल्कि जबरदस्त रूप से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी हो गया था।

उसी ध्रुवीकरण के बूते जो भाजपा कभी महज दो सांसदों वाली पार्टी हुआ करती थी, वह महज सात साल के भीतर 182 सांसदों वाली पार्टी बनकर केंद्र में करीब दो दर्जन क्षेत्रीय दलों के सहयोग से अपनी सरकार बनाने में कामयाब हो गई। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस कामयाबी रचनाकार आडवाणी ही थे।

अपने अयोध्या आंदोलन के पहले तक आडवाणी राज्यसभा के जरिए ही संसद में पहुंचते रहे थे, लेकिन अयोध्या आंदोलन यानी उनकी राम रथयात्रा ने उन्हें भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी से भी बडे जननेता के रूप में स्थापित कर दिया। ऐसे में उन्होंने राज्यसभा के बजाय लोकसभा के जरिए संसद में पहुंचने का फैसला किया तथा गुजरात के गांधीनगर को अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाया। वे करीब ढाई दशक से लोकसभा में गांधीनगर क्षेत्र की नुमाइंदगी कर रहे हैं। लेकिन अब उनकी जगह भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष अमित शाह वहां से चुनाव लडेंगे।

दरअसल 91 वर्षीय आडवाणी अपने जीवन के उस पडाव पर हैं, जहां पार्टी उनमें अपना भविष्य नहीं देख सकती। वैसे भाजपा के नियंता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आडवाणी में अपने राजनीतिक लक्ष्यों का भविष्य तब से ही देखना बंद कर दिया था जब आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्नाह को उनकी मजार पर जाकर श्रद्धाजंलि दी थी।

आडवाणी उस समय तक भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। उन्होंने प्रधानमंत्री पद की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अपने उग्र हिंदुत्ववादी तेवरों को रणनीतिक तौर पर परे कर दिया था और अटल बिहारी वाजपेयी की तरह अपने राजनीतिक चेहरे पर उदारता का मेकअप करने लगे थे। लाहौर में जिन्नाह की मजार पर जाना भी इसी उपक्रम की एक कड़ी थी।

संघ के कर्ताधर्ताओं को आडवाणी की यह उदारवादी भाव-भंगिमा रास नहीं आ रही थी, लिहाजा उन्होंने पहले आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद से बेदखल किया और फिर संसदीय दल का नेतृत्व भी उनसे छीन लिया गया। रही-सही कसर उनकी असहमति को निर्ममतापूर्वक दरकिनार करते हुए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर पूरी कर दी गई।

आडवाणी के प्रति संघ के कठोर रुख को भांपते हुए पार्टी के उन तमाम नेताओं ने भी आडवाणी से दूरी बनाने में देरी नहीं की, जो उनकी अनुंकपा से ही मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद और पार्टी के उच्च पदों तक पहुंचे थे। पिछले दिनों दिवंगत हुए गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने आडवाणी को सड़े हुए अचार तक की संज्ञा दे डाली थी। 2014 के चुनाव में पार्टी ने उनको टिकट देने में भी बहुत हीला-हवाली की।

आखिरकार आडवाणी चुनाव लड़े और जीते भी लेकिन लोकसभा में उनकी उपस्थिति पूरी तरह भूमिकाविहीन रही। पूरे पांच साल के दौरान उन्होंने किसी भी बहस में हिस्सा में हिस्सा नहीं लिया और महज 356 शब्द ही अपने मुंह से उच्चारे। अलबत्ता 16वीं लोकसभा में उनकी उपस्थिति जरूर 15वीं लोकसभा के मुकाबले एक फीसदी अधिक रही। कुल मिलाकर वे पूरे पांच साल लोकसभा में हाथ बांधे और चेहरा लटकाए बैठे रहे। यहीं नहीं, कई सार्वजनिक कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पार्टी के तमाम नेता उनकी उपस्थिति को अपमानजनक तरीके से नजरअंदाज करते देखे गए।

जाहिर है कि पार्टी के लिए वे पूरी तरह अनुपयोगी बने रहे और इसी वजह से पार्टी ने इस बार उनका टिकट काट दिया। जो भी हो, आज की तारीख में भी आडवाणी पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता हैं। वे चार दशक पहले पार्टी की स्थापना से लेकर करीब तीन दशक तक निर्णायक भूमिका रहे हैं। लंबे समय तक इस पार्टी का अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड भी उनके ही नाम है।

आज भाजपा जहां खड़ी है, उसकी बुनियाद के एक-एक पत्थर को टिकाने में आडवाणी का योगदान ही सबसे ज्यादा रहा है। पार्टी से उनके लंबे जुड़ाव और महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए पार्टी ने इस बार उनके साथ जो सुलूक किया वह हैरान करने वाला है। वैसे इस फैसले का एक कारण और गिनाया जा रहा है। लंबे समय से यह चर्चा थी कि भाजपा 75 बरस से ज्यादा उम्र के नेताओं को रिटायर करना चाहती है, ताकि राजनीति मे अगली पीढ़ी आगे आ सके।

आडवाणी जीवन के 91 वसंत देख चुके हैं और इस लिहाज से उनके रिटायर हो जाने में बहुत से लोगों को कोई हर्ज भी नहीं दिखाई देगा। वैसे आडवाणी ही नहीं, मुरली मनोहर जोशी, बीसी खंडूरी, भगतसिंह कोश्यारी, शांता कुमार, कलराज मिश्र आदि कई उम्रदराज नेताओं को भी पार्टी ने इस बार टिकट नहीं दिया है। बेहतर तो यही होता कि आडवाणी खुद ही चुनाव की घोषणा होने से पहले संसदीय राजनीति से निवृत्त होने का ऐलान कर देते। ऐसा करना उनके लिए गरिमापूर्ण होता और 'गमले में उगे हुए बरगदों’ यानी पार्टी के बौने नेताओं के हाथों जलालत नहीं झेलनी पड़ती।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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