जौनपुर। नाम के बजाय काम को तरजीह देने वाले उत्तर प्रदेश में जौनपुर संसदीय क्षेत्र के वाशिंदों ने जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जगह जमीनी नेता राजदेव को लोकसभा पहुंचाकर दशकों पहले अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। इस सीट पर किसी खास राजनीतिक दल का एकतरफा वर्चस्व कभी नहीं रहा है।
यहां से राजा से लेकर रंक तक सांसद चुने गए हैं। यहां की जनता ने कांग्रेस और भाजपा समेत सभी पार्टियों को मौका दिया है। अब तक हुए चुनाव को देखा जाए तो यहां पर छह बार कांग्रेस का परचम लहराया है जबकि इतनी ही बार कमल का फूल खिला है। दो बार साइकल दौड़ी है, तो एक बार बसपा दिल्ली पहुंची है। जनता पार्टी और जनता दल भी एक-एक बार यहां जीत दर्ज कर चुका है।
शिक्षा के मामले में अग्रणी जौनपुर शहर को शिराज ए हिन्द का खिताब मिल चुका है। इस शहर के बीच से बहने वाली आदि गंगा गोमती की हर लहर पर गंगा जमुनी तहजीब लिखी गई है। यहां की पढ़ी-लिखी जनता हर चुनाव में समझ-बूझकर अपना सांसद चुनती रही है। इस संसदीय सीट पर 1963 में हुए उप चुनाव में जनसंघ के संस्थापक दीनदयाल उपाध्याय पहली बार चुनाव लड़ने के लिए आए थे।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जौनपुर के पूर्व राजा यादवेंद्र दत्त समेत जनसंघ के कई संस्थापक सदस्यों ने पंडित दीनदयाल के पक्ष में प्रचार किया था लेकिन यहां की जनता ने उन्हें नकारते हुए स्थानीय जमीनी नेता राजदेव सिंह को अपना सांसद चुना। इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि जब पंडित दीनदयाल और उनके समर्थक नगर में चुनाव प्रचार करने निकले तो ओलंदगंज मोहल्ले में सड़क के किनारे कांग्रेस प्रत्याशी राजदेव सिंह कुछ रिक्शा वालों के साथ गुफ्तगू करते दिखे।
पंडितजी ने पूछा कि ये कौन है। साथ चल रहे यादवेन्द्र दत्त ने बताया कि यही कांग्रेस प्रत्याशी राजदेव हैं, उसी समय पंडित दीनदयाल जी ने कहा, मैं चुनाव हार गया। जब हमारा प्रतिद्वन्दी इस तरह लोकप्रिय है तो उसे कौन हरा सकता है। यह चुनाव लड़ने के बाद दीनदयाल जी कभी कोई चुनाव नहीं लड़े। उधर राजदेव सिंह ने इस सीट पर जीत की हैट्रिक लगाई।
जौनपुर लोकसभा के अब तक के हुए चुनावों पर नजर डाली जाए तो 1952 और 1957 के आम चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी बीरबल सिंह सांसद चुने गए। वर्ष 1962 में जनसंघ के ब्रह्मजीत सिंह चुनाव जीते। एक वर्ष बाद उनके निधन के बाद उपचुनाव में जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय चुनाव मैदान में उतरे लेकिन जनता ने उन्हें पूरी तरह से नकारते हुए राजदेव सिंह को अपना सांसद चुना।
राजदेव सिंह ने 1967 और 1971 में भी चुनाव जीतकर जीत की हैट्रिक लगाई। वर्ष 1977 में भारतीय लोकदल से यादवेन्द्र दत्त दुबे पहली बार सांसद चुने गए। वर्ष 1980 में जनता पार्टी सेक्यूलर के अजीजउल्लाह आजमी ने इस सीट पर कब्जा किया। वर्ष 1984 में यह सीट कमला प्रसाद सिंह ने जीतकर पुनः कांग्रेस के खाते में डाल दी। वर्ष 1991 के चुनाव में जनता दल के अर्जुन यादव सांसद चुने गए।
वर्ष 1996 के चुनाव में भाजपा के राजकेशर सिंह चुनाव जीते थे तो 1998 में सपा के पारसनाथ यादव सांसद चुने गए। अगली बार 1999 में भाजपा के स्वामी चिन्मयानंद सांसद चुने गए। वर्ष 2004 में सपा के पारसनाथ यादव दूसरी बार सांसद बने। वर्ष 2009 में बसपा प्रत्याशी बाहुबली धनंजय सिंह सांसद चुने गए तो 2014 के लोकसभा चुनाव में यह सीट पुनः भाजपा के खाते में आ गई। यहां से भाजपा प्रत्याशी केपी सिंह सांसद बने।
दिलचस्प है कि इस सीट पर कांग्रेस 35 साल से वनवास काट रही है। इस चुनाव में भाजपा ने अपने सांसद डॉ. केपी सिंह को पुनः मैदान में उतारा है जबकि सपा-बसपा गठबंधन में यह सीट बसपा के खाते में गई और बसपा ने यहां से पीसीएस अधिकारी रहे श्याम सिंह यादव को और कांग्रेस ने देवव्रत मिश्रा को अपना प्रत्याशी बनाया है।