करीब तीन दशक से गठबंधन युग की सत्ता को नाच नचा रहे वामदलों को जनादेश 2009 ने हाशिये पर धकेल दिया और पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक में 'लाल दुर्ग' की बुनियादें हिल गईं।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने अपनी पैतृक पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर वामपंथी मोर्चे को चारों खाने चित कर दिया।
केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे ने वाम मोर्चे की दयनीय हालत कर दी। वामदलों ने 2004 की 60 सीटों में से आधी गँवा दीं। सरकार के गठन में उनकी भूमिका भी समाप्त हो गई है।
मनमोहनसिंह सरकार को चार साल तक बाहर से समर्थन देते हुए अपनी अँगुलियों पर चलाने के बाद वामदलों ने अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुद्दे पर जुलाई 2007 में समर्थन वापस ले लिया था और 2009 के चुनाव में तीसरे मोर्चे की ऐसी सरकार बनाने का बीड़ा उठाया हुआ था, जिसमें भाजपा और कांग्रेस की भागीदारी न हो।
बनर्जी और कांग्रेस के प्रणब मुखर्जी की अगुआई में पश्चिम बंगाल में कई वाम गढ ढह गए। राज्य की 42 में से आधी से ज्यादा सीटों पर तृणमूल और कांग्रेस ने अपनी विजय पताका फहरा दी। वामदलों की हार पर जख्म छिड़कते हुए भारतीय जनता पार्टी तक ने इस राज्य में अपना खाता खोल लिया।
भूमि सुधारों के बल पर राज्य में तीन दशक से सत्ता पर काबिज वाम मोर्चे की पराजय में सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं को प्रमुख रूप से जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, जिसमें बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने उद्योगों की खातिर जमीनों का अधिग्रहण किया और ग्रामीण मतदाताओं को नाराज कर लिया। केरल में वामदलों की आपसी कलह को हार के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा है।
केंद्र की सरकार में वामदलों की भूमिका ऐसे समय में हाशिये पर गई है, जब आर्थिक मंदी के दौर में देश को इस मोर्चे पर सुधार के अनेक कदम उठाना हैं। वामदल बैंकिंग से लेकर पेंशन एवं बीमा क्षेत्र तक के सुधारों का विरोध करते रहे हैं।