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भविष्यवाणी तो पहले ही हो गई थी

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भोपाल (नई दुनिया) , रविवार, 17 मई 2009 (10:44 IST)
गिरीश उपाध्याय

मध्यप्रदेश के चुनाव परिणामों पर कुछ कहने से पहले दो घटनाओं का जिक्र मौजूँ होगा।

घटना एक- दो मार्च को जिस दिन चुनाव आयोग 15वीं लोकसभा के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर रहा था ठीक उसी दिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह केंद्र की मनमोहन सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को ज्ञापन दे रहे थे।

घटना दो- 13 मई को जब मतदान के सारे चरण समाप्त हो रहे थे उस दिन शिवराजसिंह प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को पत्र लिख रहे थे कि जिस तरह उन्होंने बिहार के पैकेज को लेकर नीतिश कुमार को फोन किया है, उसी तरह मध्यप्रदेश को दी जाने वाले मदद को लेकर उन्हें भी मनमोहन के फोन का इंतजार रहेगा।

मध्यप्रदेश में भाजपा के स्टार प्रचारक शिवराजसिंह से जुड़ी इन दोनों घटनाओं में ही शायद लोकसभा में भाजपा की हार का कोई सूत्र छिपा है। जिस दिन चुनाव घोषित हुआ उस दिन शिवराज के बहाने मध्यप्रदेश भाजपा केंद्र से दो-दो हाथ करने की मुद्रा में थी और जब चुनाव समाप्त हो रहा था तो शायद भाजपा को अहसास हो गया था कि उसकी हालत पतली हो रही है। वरना क्या कारण है कि जाते हुए प्रधानमंत्री से कोई मुख्यमंत्री यह अपेक्षा रखे कि वे उसे फोन करें।

यानी चुनाव शुरू होने से पहले प्रदेश भाजपा को विश्वास था कि वह लोकसभा में भी विधानसभा जैसा प्रदर्शन दोहरा लेगी। लेकिन, चुनाव खत्म होते-होते मध्यप्रदेश भाजपा के नेताओं को भी अहसास हो चुका था कि मामला गड़बड़ है। मध्यप्रदेश में भाजपा के सामने चुनौती पिछले प्रदर्शन से आगे जाने की थी। पिछली बार भाजपा ने 29 में से 25 सीटें जीती थीं और कांग्रेस केवल 4 सीटें हासिल कर पाई थी। इस बार भाजपा 9 सीटों के नुकसान के साथ 16 सीटों पर सिमट गई, जबकि कांग्रेस ने 12 सीटें हासिल कर ली हैं। 1 सीट बसपा की झोली में गिरी है।

भाजपा को सबसे बड़ा झटका अपने मजबूत गढ़ मालवा और निमाड़ क्षेत्र में लगा है, जहाँ की आठ सीटों देवास, उज्जैन, मंदसौर, रतलाम, धार, इंदौर, खंडवा और खरगोन में से इंदौर और खरगोन को छोड़कर बाकी सारी सीटें कांग्रेस ने अपनी झोली में डाल लीं। इंदौर में सुमित्रा महाजन की जीत भी भाजपा के लिए चमत्कार से कम नहीं है।

चुनाव की शヒआत में उसकी केवल तीन सीटें ही पक्की मानी जा रही थीं। इनमें तीनों केंद्रीय मंत्रियों कमलनाथ (छिंदवाड़ा), ज्योतिरादित्य सिंधिया (गुना) और कांतिलाल भूरिया (रतलाम) की सीटें शामिल थीं। कांग्रेस की स्थिति और बेहतर हो सकती थी यदि वह कुछ इलाकों में मजबूत प्रत्याशी उतारती।

ऐसे करीब 6 संसदीय क्षेत्र हैं, जहाँ उम्मीदवार ठीक होते तो उसकी सीटों में अच्छा-खासा इजाफा होता। इनमें भोपाल, जबलपुर, सागर, बैतूल और भिंड जैसे क्षेत्र शामिल हैं। बसपा के खाते में गई सीधी सीट पर भी कांग्रेस को नुकसान इसलिए हुआ, क्योंकि वहाँ अर्जुनसिंह की बेटी वीणासिंह के मैदान में उतर जाने के कारण कांग्रेस का कार्यकर्ता बँटा रहा।

चुनाव परिणामों से कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही प्रदेश अध्यक्षों ने राहत की साँस ली है। नरेन्द्रसिंह तोमर हाल ही में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए थे और लोकसभा लड़ने के मूड में कतई नहीं थे, लेकिन उन पर ऐसा दबाव बनाया गया कि उन्हें मैदान में उतरना पड़ा।

विधानसभा चुनाव में इस इलाके में पार्टी का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहने के कारण नरेन्द्र तोमर की अपने ही इलाके में पकड़ को लेकर उँगलियाँ उठना शुरू हो गई थीं, लेकिन खुद के अलावा दो और लोकसभा सीटों की जीत ने उनके विरोधियों को चुप करा दिया है।

किस्मत तो सुरेश पचौरी की भी अच्छी रही। पचौरी ने होशंगाबाद से लड़ने का मूड बनाया था और इसके लिए उन्होंने पहले से ही काफी तैयारी भी की थी। लेकिन चुनाव के नजदीक आते-आते उन्हें यह पक्की सूचना मिल गई थी कि उनका विरोधी खेमा मैदानी लड़ाई के जरिए उन्हें पूरी तरह निपटाने की फिराक में है। यही कारण रहा कि अंतिम समय में पचौरी ने खुद चुनाव न लड़कर अपने समर्थक राव उदयप्रतापसिंह को लड़वाया। उदयप्रतापसिंह के जीत जाने से न सिर्फ पचौरी की नाक बच गई बल्कि उनके विरोधियों के भी मुँह बंद हुए हैं।

यह चुनाव कुछ बातों के लिए जरूर याद किया जाएगा। सबसे बड़ी घटना विदिशा संसदीय क्षेत्र में हुई, जहाँ संदेहास्पद परिस्थिति में कांग्रेस के प्रत्याशी राजकुमार पटेल का पर्चा ही निरस्त हो गया और सुषमा स्वराज को खुला मैदान मिल गया। कांग्रेस को अपने एक विधायक माखन जाटव से हाथ धोना पड़ा। भिंड संसदीय क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दौरान उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई।

सीधी संसदीय सीट कांग्रेस के लिए विवाद का विषय बनी। केंद्रीय मंत्री अर्जुनसिंह की तमाम कोशिशों के बावजूद जब कांग्रेस ने उनकी बेटी वीणासिंह को पार्टी टिकट नहीं दिया तो उन्होंने निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा। बेटी को टिकट न मिलने से नाराज अर्जुनसिंह ने पार्टी आलाकमान तक को कोसने से परहेज नहीं किया। सीधी में अपने कट्टर समर्थक इंद्रजीत पटेल के चुनाव प्रचार के लिए वे गए, लेकिन कोई भाषण नहीं दिया।

दूसरी तरफ वीणासिंह के सामने खड़े कांग्रेस प्रत्याशी इंद्रजीत पटेल के समर्थन में प्रचार करना भोपाल स्थित टीटीटीआई के अध्यक्ष महेन्द्रसिंह चौहान को महँगा पड़ा और अर्जुनसिंह ने उन्हें पद से हटा दिया। एक दिलचस्प बात और... इस चुनाव में एनडीए सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, यह बात भी सबसे पहले मध्यप्रदेश से ही सामने आई थी। वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने भोपाल में मीडिया से शुरू में ही कह दिया था कि उन्हें एनडीए के अपने बूते सरकार बना पाने पर संदेह है। और सुषमा की भविष्यवाणी सच हो गई।

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