चुनावी सफलता के लिए क्षेत्रीय समीकरण और संगठन की मजबूती हमेशा से नेताओं की जरूरत रही है, जिसने बड़े-बड़े दिग्गजों तक को अपने गृहराज्य से दूसरी जगहों पर जाकर खम ठोंकने पर मजबूर किया है।
भाजपा के शीर्ष पुरुष अटलबिहारी वाजपेयी, इंदिरा गाँधी, पीवी नरसिंहराव जैसे लोगों को चुनावी सफलता हासिल करने के लिए समय-समय पर अपने क्षेत्र बदलने पड़े। हालाँकि इससे उनकी ख्याति के साथ-साथ रुतबे में भी इजाफा हुआ।
विशेषज्ञों के अनुसार मंडल और मंदिर की राजनीति के देश में जोर पकड़ने के बाद क्षेत्रीय समीकरण ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं, लेकिन इससे पहले तक चुनावी जीत नेताओं के व्यक्तित्व और उनके संगठन पर ज्यादा निर्भर थी।
आजादी के बाद के कुछ चुनावों पर अगर निगाह डाली जाए तो मिलेगा कि वाजपेयी लखनऊ में पुलिन बनर्जी से चुनाव में पराजित हो जाते हैं, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में किसी बंगाली के उत्तरप्रदेश में जाकर किसी सीट से चुनाव लड़कर जीतना दुष्कर होगा।
जानकारों के अनुसार वरिष्ठ समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस, जद यू अध्यक्ष शरद यादव, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद, आचार्य कृपलानी, वीके कृष्णमेनन आदि ऐसे नेताओं में शामिल हैं, जिन्होंने अपना गृहराज्य छोड़कर दूसरी जगह जाकर चुनाव लड़ा।
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और पूर्व मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज भी ऐसी शख्सियत हैं, जो राजनीति में सफलता के लिए अपने गृहराज्य की मोहताज नहीं रहीं। शीला ने जहाँ 1984 में उत्तरप्रदेश के कन्नौज से चुनाव जीता था, वहीं हरियाणा से ताल्लुक रखने वाली सुषमा फिलहाल मध्यप्रदेश के विदिशा से चुनाव मैदान में हैं। वैसे वे कर्नाटक के बेल्लारी तक जाकर सोनिया गाँधी को चुनौती दे चुकी हैं।
इंदिरा गाँधी वैसे तो रायबरेली से चुनाव लड़ती थीं, लेकिन 1977 में राजनारायण के हाथों पराजय के बाद उन्होंने कर्नाटक के चिकमंगलूर से उपचुनाव लड़ा और जीता। इंदिराजी ने 1980 का लोकसभा चुनाव आंध्रप्रदेश के मेडक से भी लड़ा, जहाँ उन्होंने उस समय जनता पार्टी के टिकट पर उतरे एस. जयपाल रेड्डी को शिकस्त दी।
जानकारों ने बताया कि नरसिंहराव प्रधानमंत्री बनने के बाद भले ही अपने गृहराज्य में नंदयाल से उपचुनाव जीते हों लेकिन वे भी राज्यों की सीमा में बँधे नहीं रहे और महाराष्ट्र के रामटेक तथा उड़ीसा के बरहमपुर में प्रधानमंत्री बनने से पहले ही अपनी जीत के झंडे गाड़ चुके थे।
कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद किसी जमाने में महाराष्ट्र की वासिम लोकसभा सीट से चुनाव लड़ते और जीतते थे। आजाद ने 1980 और 1984 में इस सीट से विजय हासिल की थी।
समाजवादी जॉर्ज फर्नांडीस ने बिहार के मुजफ्फरपुर को अपनी कर्मभूमि बनाने से पहले मुंबई और कर्नाटक से चुनाव लड़े। यह दीगर बात है कि बेंगलुरु उत्तर लोकसभा सीट पर उन्हें 1984 में कांग्रेस के सीके जाफर शरीफ के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा।
जानकारों के अनुसार 1991 के बाद लगातार उत्तरप्रदेश की लखनऊ सीट से लड़ने वाले वाजपेयी ने अपना पहला चुनाव बलरामपुर से 1957 में जीता था और उसके बाद वे कभी किसी एक क्षेत्र के मोहताज नहीं रहे। वाजपेयी ने ग्वालियर, नई दिल्ली, गाँधीनगर से अपनी किस्मत आजमाई, जिसमें कभी वे जीते तो कभी उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा।
विशेषज्ञों के अनुसार शरद यादव ने अपनी चुनावी राजनीति की पारी मध्यप्रदेश की जबलपुर सीट से जीत हासिल कर शुरू की। बाद में 1984 में वे उत्तरप्रदेश के बदायूं में कांग्रेस के सलीम शेरवानी से पराजित हुए। उसके बाद यादव बिहार की मधेपुरा सीट पर चले गए।
दक्षिण भारत के चर्चित नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी अब भले ही तमिलनाडु तक सीमित होकर रह गए हों, लेकिन 77 और 80 में वे बंबई उत्तर पूर्व सीट से विजयी हुए थे।
ऐसे नेताओं में वाजपेयी को बलरामपुर में 1962 में हराने वाली सुभद्रा जोशी, भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, बूटासिंह, मधु लिमये और अर्जुनसिंह आदि भी शामिल हैं जो सिर्फ एक क्षेत्र में बँधकर नहीं रहे।