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कालखंड में झाँकें, परखें और चुनें

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उमेश त्रिवेद

अड़तालीस घंटों में मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव का मेगा-शो खत्म होने वाला है। इस राजनीतिक ऑपेरा में कई नायक उभरे, खलनायक सामने आए, चरित्र अभिनेताओं की बाढ़ आई। सबने सबको देखा, समझा और मौका दिया। अब प्रदेश के साढ़े तीन करोड़ मतदाताओं की बारी है, जिन्हें बटन दबाकर अगले पाँच साल के लिए राजनीतिक विरासत का फैसला करना है।

पिछले साठ वर्षों में बना-बिगड़ा मध्यप्रदेश उनके सामने है। इन साठ वर्षों में कोई अड़तालीस साल तक कांग्रेस ने मध्यप्रदेश की बागडोर संभाली। बारह वर्ष भाजपा (जनसंघ भी) ने राज किया। इन दोनों के दावों और प्रति-दावों के बीच तीसरी ताकत कभी भी हिस्सेदारी के लिए मौजूद नहीं रही। यश और अपयश के भागीदार सिर्फ यही दो दल हैं।

  समय की इबारत पर इतना कुछ लिखा हुआ है कि पढ़कर कोई भी माकूल फैसला करना मुश्किल नहीं है। जो चुनाव के मैदान में हैं, उनकी एकमात्र कोशिश यही है कि मतदाता केवल वही देखे, वही सुने और वही बोले, जो उन्हें बताया जा रहा है, लेकिन क्या यह मुनासिब है?      
ताजा जनादेश पाने के लिए भाजपा और कांग्रेस ने जो तर्क गढ़े और दलीलें पेश की, वे कितनी विश्वसनीय और भरोसा करने लायक हैं, इसको जाँचने के लिए पिछले पाँच साल से पचास साल के कालखंड में झाँकना होगा।

भाजपा ने अपने ताजा घोषणा-पत्र में तीन सौ सत्तानवें वादे किए हैं, जबकि कांग्रेस के घोषणा-पत्र में चार सौ चवालीस वादे हैं। हर पाँच साल में ये दस्तावेज लोगों को मिलते रहे हैं। ऐसे वादे-इरादे और सपनों की हकीकत को जनता बखूबी देख चुकी है। इन्हें आँकने और परखने के लिए समूचा मध्यप्रदेश सामने है।

...दो सौ तीस विधानसभा क्षेत्रों में बँटा राजनीतिक परिदृश्य है, जहाँ आमजन के सरोकार लगभग अनुपस्थित हैं।... चुनाव में उतरे प्रत्याशियों की घोषित सम्पत्ति हैं, अघोषित कारनामे हैं...। जुलूस, रैलियाँ और चंदाखोरी के किस्से हैं...। राजनीतिक सौदेबाजी और भ्रष्टाचार के मूर्त-अमूर्त शिलालेख हैं...।

समय की इबारत पर इतना कुछ लिखा हुआ है कि पढ़कर कोई भी माकूल फैसला करना मुश्किल नहीं है। जो चुनाव के मैदान में हैं, उनकी एकमात्र कोशिश यही है कि मतदाता केवल वही देखें, वही सुनें और वही बोलें, जो उन्हें बताया जा रहा है, लेकिन क्या यह मुनासिब है?


भाजपा और कांग्रेस के चुनाव अभियान और विज्ञापन युद्ध के तथ्यों और तर्कों को मानें तो एक बात साफ है कि प्रदेश का एक भी नेता बेदाग नहीं है। यदि कांग्रेस ने भाजपा के अठारह मंत्रियों को भ्रष्टाचार के लिए कटघरे में खड़ा किया है, तो भाजपा ने कांग्रेस शासन के बाईस मंत्रियों के कारनामे लोकायुक्त के प्रतिवेदन से निकालकर सामने रख दिए हैं।

शह और मात का यह खेल राजनीति के हमाम में सबको नंगा दिखा रहा है। निश्चित ही इस धुंध में मतदाताओं के लिए सच और झूठ का फैसला करना मुश्किल है। ईमानदारी और भ्रष्टाचार के बीच लकीर खींचना भी कठिन है। लेकिन मतदाताओं को गहराई में जाकर इन मुद्दों को निर्धारित करना होगा। अन्यथा ये बातें विकास की बुनियाद को दीमक बनकर चाटती रहेंगी।

सतर्कता इसलिए जरूरी है कि विधानसभा में इस मर्तबा विकास का ऐसा कोई प्रदेशव्यापी मुद्दा नहीं है, जिसको लेकर जनमानस आंदोलित हो। बिजली, पानी और सड़क जैसे मुद्दे, जो दिग्विजय सरकार के समय परिवर्तन के वाहक बने थे, इस वक्त उतने सुर्ख नहीं हैं, जितने पहले थे।

शिकायतें हैं, किन्तु शिकायतों को लेकर तूफान नहीं है। इसके मायने यह भी नहीं हैं कि लोग विकास नहीं चाहते हैं। उन्हें विकास चाहिए, लेकिन विकास के पहले वो स्थानीय तौर पर राजनीतिक उन्माद, वितंडावाद और निरंकुश जनप्रतिनिधित्व की उग्रता से मुक्ति चाहते हैं।

  विधायक पहले जनता और मुख्यमंत्री के बीच कड़ी होते हैं। दूसरी कड़ी के रूप में विधायकों की भूमिका काफी अहम होती है और इसी को लेकर सरकार के बारे में लोगों की राय बनती है।      
इस चुनाव में स्थानीय मुद्दे, जनप्रतिनिधियों का व्यवहार-बर्ताव और कारनामे सरकार बनाने के लिए काँटे साबित हो रहे हैं। भले ही यह चुनाव प्रदेश के मुखिया के लिए हो और भले ही उसके खिलाफ नाराजी की व्यापकता नहीं हो, लेकिन चाहे-अनचाहे इस प्रादेशिक चुनाव पर स्थानीय मुद्दे और विधायकों के बर्ताव हावी हो गए हैं। मतदाताओं को इस फर्क को समझकर फैसला करना होगा। सत्ता के तार नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे वापस आते हैं।

विधायक पहले जनता और मुख्यमंत्री के बीच कड़ी होते हैं। दूसरी कड़ी के रूप में विधायकों की भूमिका काफी अहम होती है और इसी को लेकर सरकार के बारे में लोगों की राय बनती है। भाजपा ने अपने 52 वर्तमान विधायकों के टिकट बदलकर इस क्रम को दुरुस्त करने का प्रयास किया है, लेकिन क्या यह सार्थक होगा?

कांग्रेस ने भी ऐसी ही कोशिशें की हैं, लेकिन राजनीति के सूत्रधारों को सोचना होगा कि सिर्फ चेहरा बदलने से बात नहीं बनेगी, उन्हें अपना चाल-चलन भी बदलना होगा। इस बदलाव के लिए निश्चित ही मतदाताओं को ज्यादा सख्त और सतर्क होना पड़ेगा।

विधानसभा चुनाव के इस "मेगा-शो" के असली हीरो को चुनने का वक्त आ गया है। जनता के अगले पाँच साल दाँव पर लगे हैं। एक बार बटन दबा देने के बाद तीर-कमान से निकल जाएगा। इसलिए निशाना साधने के पहले सोचें, समझें, देखें-भालें और फिर आगे बढ़ें...। अन्यथा पाँच साल हाथ मलते रह जाएँगे।

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