Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

सत्ता को खेरची धंधा न बनने दें

Advertiesment
हमें फॉलो करें सत्ता को खेरची धंधा न बनने दें

उमेश त्रिवेदी

मतदाताओं के माथे इस मर्तबा ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी है। यह उनकी परिपक्वता पर सवाल नहीं है, बल्कि उस बहुआयामी चुनौतियों की ओर इशारा है, जिनको लाँघकर उन्हें प्रदेश की बागडोर का फैसला करना है।

विधानसभा चुनाव 2008 के पहले भी सरकार के गठन में अपने मताधिकार का उपयोग करने की विश्लेषकों की सराहना बटोर चुके हैं, लेकिन गुरुवार को होने वाले मतदान की परिस्थितियाँ भिन्न हैं। मध्यप्रदेश की राजनीति ऐसे चौराहे पर आकर खड़ी हो गई है जहाँ बहुत धुंध है। यह धुंध भ्रमित करती है। इसके पार दिखने वाली रोशनी रंगीन और प्रभावी महसूस होती है, लेकिन वस्तुस्थिति इससे भिन्न है।

  राजनीतिक समीक्षकों के अनुसार बसपा कोई 68 स्थानों पर और भाजश नब्बे सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के चुनाव समीकरणों को बिगाड़ रही है।      
साठ वर्षों तक कांग्रेस और भाजपा में विभाजित मध्यप्रदेश की दो दलीय राजनीति में बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनशक्ति पार्टी का प्रभावी हस्तक्षेप राज्य में राजनीतिक अस्थिरता, अनिश्चितता और सौदेबाजी का जिन्न बनकर सामने खड़ा है। मध्यप्रदेश में अभी तक इन पार्टियों की उपस्थिति सरकार के गठन को प्रभावित करने में समर्थ नहीं थी। इस चुनाव में हालात भिन्न हैं।

कांग्रेस और भाजपा के साथ ये पार्टियाँ लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों में मौजूद हैं। दो सौ तीस विधानसभा सीटों के बँटवारे में बसपा और भाजश की उपस्थिति को सांकेतिक और औपचारिक नहीं माना जाना चाहिए।

राजनीतिक समीक्षकों के अनुसार बसपा कोई 68 स्थानों पर और भाजश नब्बे सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के चुनाव समीकरणों को बिगाड़ रही है। बसपा और भाजश ने धर्म, जाति, धनबल, बाहुबल, बागी और बगावत, क्षत्रप और क्षेत्रीयता को ध्यान में रखकर टिकट बाँटे हैं। इनमें कांग्रेस और भाजपा के विद्रोही भी शरीक हैं।

पिछले चुनावों की तुलना में मतदाताओं के विवेक को कुरेदने के लिए भावनाओं से खेलने के लिए और गुमराह करने के लिए ज्यादा सामान दलों के पास मौजूद है। सरकार बनाने के मामलों में मध्यप्रदेश में भाजपा या कांग्रेस के पक्ष में दो टूक फैसला होता रहा है। सरकार चाहे जो हो, पक्की होती थी।

लेकिन इस बार क्या होगा? धर्म-जाति, संप्रदाय, क्षेत्रीयता, बगावत और प्रतिशोध की राजनीति क्या मध्यप्रदेश में अधपकी, अधकचरी सरकारों का चलन बनकर उभरेगी, विकास की दिशाओं में सड़ांध पैदा करेगी या राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र को लट्टुओं की तरह एक ही बिंदु पर नचाने का काम करेगी?

मतदाताओं को प्रदेश के हितों को ध्यान में रखकर यह फैसला करना है। चुनौती सिर्फ प्रदेश को अस्थिरता से बचाने की नहीं, बल्कि उन मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की भी है, जो सार्वजनिक जीवन से गायब हो चुके हैं।

  राजनीति का वर्तमान चेहरा दादागिरी, दरोगागिरी और दहशतगर्दी का पर्याय बन चुका है? हमें सोचना होगा कि हालात को गर्त में पहुँचाने के लिए हमारी सहिष्णुता, तटस्थता, निष्क्रियता, लोलुपता और स्वार्थी प्राथमिकताएँ कितनी जिम्मेदार हैं?      
राजनीति का वर्तमान चेहरा दादागिरी, दरोगागिरी और दहशतगर्दी का पर्याय बन चुका है? हमें सोचना होगा कि हालात को गर्त में पहुँचाने के लिए हमारी सहिष्णुता, तटस्थता, निष्क्रियता, लोलुपता और स्वार्थी प्राथमिकताएँ कितनी जिम्मेदार हैं?

सरकार और उससे जुड़े अच्छे-बुरे चेहरों से हम अनजान नहीं हैं, फिर भी अच्छाई के समर्थन में हमारी आवाज कमजोर क्यों होती है? बुराई के सामने हमारे कंठ अवरुद्ध क्यों हो जाते हैं? इन सवालों को हमें स्वयं से पूछना होगा और खुद ही उत्तर भी देना होगा।

देश और प्रदेश की नियति के बारे में खुद से सवाल-जवाब में ही प्रजातंत्र की समूची समस्याओं का निदान छिपा है। कोई भी सरकार या तंत्र विरासत से अछूता नहीं हो सकता, इन विरासतों के साथ ही अच्छाई-बुराई को तौलकर एक सकारात्मक जागरूकता के साथ निर्णय होना चाहिए।

सरकार कोई भी बने, ऐसी बने जो पाँच साल चल सके, खरीद-फरोख्त और सौदेबाजी से मुक्त हो। मतदाताओं को सुनिश्चित करना होगा कि सरकार राजनीति का खेरची धंधा नहीं बन जाए। चुनें उन्हें, जो पाँच साल तक सरकार चला सकें।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi