प्रदेश विधानसभा जंग निर्णायक मोर्चे पर पहुँच गई है। गत 1 माह में भाजपा ने सत्ता में वापसी के लिए तो कांग्रेस ने पुनर्वास के लिए सारे राजनीतिक दाँव-पेंच आजमा लिए हैं। अब वर्जित हथियारों की बारी तो ब्रह्मास्त्र और दिव्यास्त्र की भी तैयारी है। दोनों ही दलों के सिपहसालारों को ना तो खाने की सुध है ना ही सोने की। उन्हें बस 27 नवंबर के सूर्योदय की प्रतीक्षा है जब मतदाता उनका भविष्य लॉक करेंगे। इसके बाद राजनीतिक विश्लेषक, मीडिया और ज्योतिषी मोर्चा संभाल लेंगे और इस चुनावी जंग का सबसे मजाकिया दौर शुरू होगा। 8 दिसंबर तक हर रोज नित नए कयास लगाए जाएँगे कि भाजपा की उम्मीद- 'फिर शिवराज' पूरी होगी या कांग्रेस का वनवास समाप्त होगा।
प्रदेश के 13वें विधानसभा चुनाव में कई दिलचस्प पहलू उभरे हैं। राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में 'हाईटेक' हुए हैं। उन्होंने प्रोफेशनल मीडिया मैनेजर्स की सेवाएँ प्राप्त की हैं पर उनका तौर-तरीका नहीं बदला है। टिकट वितरण को लेकर पहले से ज्यादा बंदरबाँट हुई है, डंडे चले हैं तो नकद नारायण ने भी अहम भूमिका निभाई है। चुनाव में आमतौर पर विपक्ष आक्रामक दिखाई देता है और वह ही चुनावी एजेंडा तय करता है। पर इस चुनाव में शुरू से ही सत्तारूढ़ होने के बावजूद भाजपा ने न केवल आक्रामक रुख अपना रखा है बल्कि चुनावी एजेंडा भी हथिया लिया है।
इसका कारण है पार्टी की यह घोषणा कि शिवराजसिंह चौहान ही भाजपा सरकार की दूसरी पारी खेलेंगे। कांग्रेस इतनी दुविधाग्रस्त है कि अब तक सर्वमान्य मुखिया नहीं चुन पाई है तो उसके संभावित मुख्यमंत्री चुनाव ही नहीं लड़ रहे हैं। स्पष्ट है कि यदि कांग्रेस को मौका मिला तो पार्टी के कथित मठाधीशों के लिए प्रत्याशियों से भी ज्यादा सिर फुटव्वल होगी। कांग्रेस आलाकमान जिसे प्रदेश की बागडोर सौंपेगा उसे अपने ही दल के दिग्गजों का भी बार-बार सामना करना पड़ेगा और इसका दुष्परिणाम प्रदेश भुगतेगा।
इतिहास गवाह है कि मध्यप्रदेश में पहले भी यही हुआ है। उर्वर भूमि, प्रचुर मात्रा में खनिज, पर्वत श्रृंखला, अकूत वन संपदा, पर्याप्त कुशल- अकुशल मानवीय श्रम और बारह मासी नर्मदा के बावजूद मध्यप्रदेश एक पिछड़ा और बीमारू राज्य बनकर रह गया है। भाजपा का आरोप रहा है कि प्रदेश के पिछड़ने का कारण कांग्रेस है जिसने सन् 1956 में स्थापित मध्यप्रदेश की 45 साल बागडोर संभाली पर इस अवधि में प्रदेश को ऐसे मुखिया नहीं मिले जिनके पास विकास का व्यवहारिक एजेंडा हो और उसे लागू करने का दृढ़ संकल्प।
इस आरोप-प्रत्यारोप के साथ ही भाजपा दावा कर रही है कि उसे पहली बार पूरे 5 साल मिले तो उसने प्रदेश के हालात बदलने की ईमानदार कोशिशें कीं। शिवराज के नेतृत्व में प्रदेश में सड़कों की दशा सुधरी है, सिंचाई क्षमता बढ़ी है, किसानों के लिए खेती मुनाफे का धंधा बनने लगी है, महिलाओं का मान-सम्मान बढ़ा है और बिजली भी पहले से ज्यादा मिलने लगी है। भाजपा के अनुसार जो बिजली कटौती का कारण प्रदेश के साथ केंद्र का सौतेला व्यवहार।
इसके साथ भाजपा यह भरोसा भी दिला रही है कि लंबित विद्युत परियोजनाएँ पूरी होने के बाद प्रदेश बिजली के मामले में भी आत्मनिर्भर हो जाएगा। भाजपा का यह दावा भी है कि शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रदेश ने तेजी से दौड़ना शुरू कर दिया है और यदि इन बुनियादी सुविधाओं के संपूर्ण विकास का उसे मौका और मिला तो प्रदेश में बड़े उद्योग भी आने लगेंगे और मध्यप्रदेश भी विकसित राज्यों की सूची में शामिल हो जाएगा। इस पृष्ठभूमि में चुनाव प्रचार का लब्बोलुबाब यह है कि दोनों प्रतिद्वंद्वी एक बात पर सहमत है कि मध्यप्रदेश अमीर राज्य है पर इसके नागरिक गरीब हैं। कांग्रेस बचाव की मुद्रा में इसके लिए खुद को जवाबदार तो मान रही है पर साथ ही मतदाताओं से कह रही है कि हमने भूल की थी, हमें ही इसे सुधारने का मौका दो और भाजपा के चुनाव प्रचार की अंतर्ध्वनि है- मतदाता शिवराज के 3 साल याद करें।
अब यह मतदाता तय करेंगे कि भाजपा की वापसी हो या कांग्रेस का पुनर्वास। विडंबना यह है कि भारतीय मतदाता जिस जोश के साथ नकारात्मक वोट डालते हैं, उस उत्साह से सकारात्मक मतदान नहीं करते। वे सोचते हैं कि जिसने अच्छा काम किया है उसे उनके पड़ोसी जिता देंगे। हम वोट नहीं देंगे तो क्या फर्क पड़ेगा? जो मतदाता खासकर युवा मतदाता मतदान को बेगार मानते हैं वे सोचें कि वे क्या खो रहे हैं और प्रदेश क्या खो रहा है। सबसे पहले तो ऐसे मतदाता राजनेताओं को कोसने का नैतिक अधिकार खोते हैं और दूसरे, उन राजनेताओं को प्रोत्साहित करते हैं जो मानते हैं कि चुनाव जीतने के लिए विकास मुद्दा नहीं होता, चुनाव तो मैनेज किए जाते हैं।
दुर्भाग्य से भारतीय लोकतंत्र में यही हुआ है, यही हो रहा है। जो मतदान करते हैं उन पर तिकड़म काम कर रही है और जिन्हें तिकड़म से भरमाया नहीं जा सकता वे मतदान ही नहीं कर रहे हैं। इस बुराई का ही दुष्परिणाम है कि हमारा प्रदेश 50 साल विकास को तरस गया। आजादी के बाद हमने लोकतंत्र शासन प्रणाली अपनाई है जिसका आधार है मतदान। जनता को मिला ऐसा ब्रह्मास्त्र जिसके जरिए वे निष्पक्ष पंच की भूमिका सक्रियता से निभाकर उनकी पीठ थपथपा सकते हैं, जिन्होंने आम आदमी का भला किया है तो उन्हें दंडित कर सकते हैं जिन्होंने प्रदेश का बंटाधार किया। (नईदुनिया)