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कांग्रेस की हार के 5 कारण

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ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा चेहरे पर दांव लगाने के बाद भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस को लगातार तीसरी बार करारी हार का सामना करना पड़ा।

मध्यप्रदेश में आखिर कांग्रेस क्यों हारी। केंद्र की बदनामी, मध्यप्रदेश कांग्रेस की गुटबाजी या टिकट के बंटवारे को लेकर उपजा असंतोष कांग्रेस को ले डूबा या कुछ और आइए नजर डालते हैं कांग्रेस की हार के पांच कारण...


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* सिंधिया के नाम की देर से घोषणा : चुनावों की घोषणा से पहले ही भाजपाई पूरे प्रदेश में शिवराज के नाम की माला जपने लगे थे तो कांग्रेसियों को यह पता ही नहीं था कि उनका नेता कौन होगा। कांग्रेस ने बाद में भले ही ज्योतिरादित्य को चुनाव अभियान की कमान सौंप दी हो, पर वे पार्टी में सर्वमान्य नेता नहीं थे।

उन्हें कांग्रेस के ही अन्य दिग्गजों दिग्विजयसिंह, सुरेश पचौरी और कांतिलाल भूरिया का भी साथ नहीं मिला। वैसे उन्होंने कम समय में बेहतर तरीके से पार्टी के लिए कार्य किया, पर वे सभी को साधने में विफल रहे। पार्टी ने उन्हें मुख्यमं‍त्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था इससे भी युवा मतदाताओं का साथ कांग्रेस को नहीं मिला।


* समन्वय का अभाव : इस चुनाव में भाजपा ने जहां बेहतरीन टीम वर्क से काम लिया वहीं कांग्रेसी पूरे समय बिखरे हुए से दिखाई दिए। राहुल गांधी की चुनावी योजना को टिकट वितरण के समय ही कूड़े में फेंक दिया गया। दिग्गजों से उनके समर्थक नाराज रहे तो कार्यकर्ताओं पर भी संगठन का नियंत्रण नहीं था।

कई उम्मीदवारों के पास प्रचार के लिए कार्यकर्ता नहीं थे तो कई जगह ऐसे कार्यकर्ता प्रत्याशियों के साथ दिखाई दे रहे थे जिन्हें मतदाता जानते भी नहीं थे। ऐसे में न तो जनसंपर्क ठीक तरह से हो पाया न मतदाता तक कांग्रेस अपनी बात ठीक तरह से पहुंचा पाई।


* मुद्दों का अभाव : कांग्रेस को इस चुनाव में मुद्दों की भी कमी खली। विकास का मुद्दा भाजपा के पक्ष में था तो दिल्ली सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों के कारण प्रदेश में भ्रष्टाचार की बात कहने में भी कांग्रेसियों को शर्म महसूस हो रही थी।

कैलाश विजयवर्गीय, अनूप मिश्रा, विजय शाह जैसे विवादास्पद मंत्रियों को भी नहीं घेरा जा सका। सोनिया और राहुल जैसे कांग्रेसी दिग्गज भी इस मुद्दे को ठीक तरह से नहीं उठा पाए। राघवजी का मुद्दा कब हाथिए पर चला गया, पता ही नहीं चला।


* आत्मविश्वास का अभाव : मध्यप्रदेश कांग्रेस में इस बार आत्मविश्वास की कमी स्पष्ट दिखाई दे रही थी। इस चुनाव में एंटी कंबेंसी फैक्टर काम नहीं कर रहा था उल्टा शिवराज के पक्ष में हवा बह रही थी। भले ही कांग्रेसी दिग्गज सिंधिया जीत के लिए जोर लगा रहे थे, पर आम कांग्रेसी भी यह मानकर चल रहे थे कि प्रदेश में उनकी सरकार नहीं बन पाएगी।

पार्टी को इस धारणा का भी खामियाजा भुगतना पड़ा। कांतिलाल भूरिया जैसे दिग्गज भी केवल मुंह दिखाई की रस्म अदा करते हुए दिखाई दे रहे थे। लगभग सभी दूर विरोधी सक्रिय थे। कई जगहों पर तो मतदान के बाद तक विरोध विद्रोह में बदल गया और कार्यकर्ता ही प्रत्याशियों के खिलाफ काम करने लगे।


* बागियों ने बिगाड़ा खेल- कांग्रेस के सामने सबसे ज्यादा मुश्किल बागियों ने खड़ी की। टिकट वितरण से नाराज इन दिग्गजों ने पार्टी से बगावत कर प्रत्याशियों को नाकों तले चने चबवा दिए। खुद प्रदेश अध्यक्ष की भतीजी चुनाव मैदान में बागी के रूप में उतर गईं।

इंदौर एक से कमलेश खंडेलवाल, बड़वाह से सचिन बिड़ला, महिदपुर से दिनेश बोस, मनासा से मन्ना बैरागी, मंदसौर से आशिया बी, मऊगंज से विनोद शुक्ला, मेहगांव से राकेश शुक्ला, थांदला से कलसिंह भाबर, बहोरीबंद (कटनी) से शंकर मेहतो, गुढ़ से कपिलध्वज सिंह ने जमकर कांग्रेस के वोट काटे।


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