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मप्र में कभी भी नहीं बनी जीत की हैटट्रिक

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भोपाल , रविवार, 24 नवंबर 2013 (12:54 IST)
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भोपाल। मध्यप्रदेश में पिछले 50 साल के चुनावी इतिहास में कोई भी दल जीत की हैटट्रिक नहीं बना पाया है।

राज्य में यदि पिछले 50 बरस के चुनावी इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो एक तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि इस दौरान एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि जनता ने किसी पार्टी को तीसरी बार सरकार बनाने का मौका दिया हो।

वर्ष 1977 में 10 साल तक सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस आपातकाल के बाद जनता पार्टी की आंधी में उड़ गई थी और उसे अन्य राज्यों के समान मध्यप्रदेश में भी सत्ता गंवानी पड़ी। हालांकि यह बात दूसरी है कि जनता पार्टी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई और मात्र ढाई साल के शासनकाल में आपसी लड़ाई के चलते उसे सत्ता से बाहर होना पड़ा।

जनता पार्टी की सरकार भंग होने के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आई और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने 5 साल तक निर्बाध शासन किया। वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर सहानुभूति मतों के सहारे प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही।

तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान बोफोर्स तोप कांड का असर मध्यप्रदेश में भी दिखाई पड़ा और कांग्रेस तीसरी बार सत्ता पाने से वंचित हो गई। तब भाजपा ने पूर्ण बहुमत हासिल कर सत्ता हासिल की थी और सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने।

सुंदरलाल पटवा भी अन्य गैरकांग्रेसी सरकारों की तरह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाए जाने के बाद प्रदेश में हुए दंगों की वजह से उनकी सरकार भंग कर दी गई।

लगभग 1 साल के राष्ट्रपति शासन के बाद हुए विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा को पूरी उम्मीद थी कि वह सत्ता में वापस आ जाएगी लेकिन कांग्रेस ने एक बार फिर बाजी मारते हुए सत्ता पर कब्जा किया और दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने।

सिंह ने 5 साल तक मुख्यमंत्री बने रहने के बाद वर्ष 1998 में हुए विधानसभा चुनाव में विजय प्राप्त की और लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने।

कांग्रेस लगातार दूसरी बार प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही और उसे उम्मीद थी कि वह तीसरी बार सरकार बनाने में सफल हो जाएगी लेकिन भाजपा के आक्रामक प्रचार और उमा भारती के तूफानी दौरों के चलते कांग्रेस का तीसरी बार सत्ता में आने का सपना ही चकनाचूर नहीं हुआ बल्कि उसे शर्मनाक पराजय का सामना भी करना पड़ा।

भाजपा के सत्ता में आने के बाद उमा भारती के रुप में प्रदेश ने पहली महिला मुख्यमंत्री का रूप देखा लेकिन 8 माह में ही उमा भारती ने कर्नाटक में तिरंगा कांड के चलते अपने पद से इस्तीफा देकर बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री बना दिया। हालांकि गौर डेढ़ वर्ष ही मुख्यमंत्री रह सके और 2005 में उन्हें शिवराज के लिए अपनी कुर्सी खाली करनी पडी।

5 साल बाद वर्ष 2008 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी कि वह भाजपा को सत्ता से बाहर करने में सफल रहेगी लेकिन पहली बार किसी गैरकांग्रेसी सरकार ने न केवल अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा किया बल्कि लगातार दूसरी बार सता में आने में भी वह सफल रही।

2008 के बाद अब एक बार फिर मप्र में विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे हैं और भाजपा जहां लगातार तीसरी बार सत्ता में आकर विजय की हैटट्रिक लगाना चाहती है वहीं कांग्रेस नेताओं ने भी एकजुट होकर भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए पूरा जोर लगा दिया है।

हालांकि प्रदेश में लगातार तीसरी बार कोई भी दल सरकार नहीं बना पाया है और अब देखना है कि क्या भाजपा इस मिथक को तोडकर तीसरी बार सत्ता में आ पाएगी या जनता एक बार फिर इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए उसे सत्ता से निकाल बाहर करेगी। (भाषा)

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