Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

शिवराज की भी धड़कनें बढ़ी हुई हैं

हमें फॉलो करें शिवराज की भी धड़कनें बढ़ी हुई हैं
भोपाल , शनिवार, 23 नवंबर 2013 (22:33 IST)
FILE
भोपाल। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार समाप्त हो चुका है लेकिन धुंआधार प्रचार और ऊपरी दावों के बावजूद भाजपा और कांग्रेस में से किसी को सत्ता में आने का पक्का यकीन नहीं है।

राज्य के चुनावी वातावरण का आकलन करें तो ऐसे संकेत नहीं मिल रहे हैं कि प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि और भाजपा के विकास के दावे राज्य में विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ जनता की नाराजगी को पूरी तरह से दूर कर पाए हैं। लेकिन कांग्रेस के चुनावी अभियान के अनियोजित विकेन्द्रीकरण, टिकट वितरण में विसंगतियों और असंतोष तथा कई उम्मीदवारों का मनोबल गिरा होने से उसकी जीत भी दूर की कौड़ी लग रही है।

राज्य में सत्तारुढ भाजपा को प्रचार शुरू होने के आरंभिक चरण के बाद अचानक पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंन्द्र मोदी की जरूरत महसूस हुई और उनकी ताबड़तोड़ सभाएं आयोजित कीं। मोदी की सभाओं में लोगों की भीड़ अवश्य आई, लेकिन विधानसभा चुनावों में मोदी लहर जैसी कोई चीज नहीं दिख रही है।

भाजपा और विपक्षी कांग्रेस के संगठनात्मक तैयारियों पर नजर डालें तो भाजपा का संगठन अधिक चुस्त-दुरुस्त दिख रहा है। प्रभारी महासचिव अनंत कुमार के निर्देशन में राज्यसभा सांसद अनिल माधव दवे, भाजपा के उपाध्यक्ष प्रभात झा, संगठन महामंत्री अरविंद मेनन और मीडिया विभाग के पूर्व प्रमुख विजेश लूनावत की टीम के कुशल चुनाव प्रबंधन तथा चौहान, मोदी समेत अनेक वरिष्ठ नेताओं का धुंआधार प्रचार अभियान चला, पर इसके बावजूद राज्य में मंत्रियों सहित पचास से ज्यादा स्थानीय विधायकों के खिलाफ गहरा जनाक्रोश कम नहीं हुआ है।

कांग्रेस की तैयारियों पर नजर डालें तो मामला विचित्र लग रहा है। पार्टी आलाकमान ने बीच चुनाव में प्रदेश के बड़े नेताओं को उनके क्षेत्रों में सीटों की जिम्मेदारी देकर विकेंन्द्रीकृत नेतृत्व का प्रयोग किया है, लेकिन पार्टी के प्रदेशव्यापी अभियान के केन्द्रीकृत संचालन की प्रणाली पूरी तरह से गड़बड़ा गई है। पार्टी के सांसदों में भी इस व्यवस्था को लेकर रोष है।

प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया घोषणा पत्र जारी होने के बाद से नहीं दिखे हैं। प्रदेश मुख्यालय की कमान मध्यप्रदेश के प्रभारी, पार्टी महासचिव मोहन प्रकाश तथा पार्टी के केन्द्रीय पर्यवेक्षक हरीश रावत संभाल रहे हैं, जबकि मध्यप्रदेश के स्थानीय नेतृत्व के नाम पर प्रदेश के उपाध्यक्ष रामेश्वर नीखरा उनकी मदद कर रहे हैं, जिनके जनाधार और प्रदेशभर के कार्यकार्ताओं पर पकड़ को लेकर कोई भरोसा नहीं करता।

रावत और मोहन प्रकाश ही मीडिया रणनीति तय कर रहे हैं और भाजपा को उसके आंकड़ों और विज्ञापनों में गलतियां ढूंढ-ढूंढकर ही हमला कर पा रहे हैं। राज्य के राजनीतिक इतिहास और भूगोल का जमीनी अनुभव नहीं होने से इन दोनों केन्द्रीय नेताओं का कोई नियंत्रण नहीं दिख रहा है।

विकेन्द्रीकृत नेतृत्व का आधा-अधूरा प्रयोग पार्टी को सत्ता की लड़ाई में कमजोर कर रहा है, अगर कोई बात कांग्रेस को मजबूत सहारा दे रही है तो वह है मीडिया में धुंआधार प्रचार अभियान। टेलीविजन पर कांग्रेस के विज्ञापन ज्यादा आकर्षक साबित हो रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार कांग्रेस को अगर सत्ता मिली तो इसके लिए कांग्रेसी नेताओं का कम, जनता का अधिक योगदान होगा।

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूरिया झाबुआ, अलीराजपुर, धार, बड़वानी क्षेत्रों में जुटे हैं, वहीं प्रचार अभियान समिति के प्रमुख ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना, ग्वालियर, मुरैना, भिंड, दतिया क्षेत्र में ही ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। इसी तरह कमलनाथ महाकौशल, अरुण यादव निमाड़ क्षेत्र, सत्यव्रत चतुर्वेदी बुंदेलखंड और अजय सिंह विंध्य क्षेत्र में डटे हैं।

भाजपा और कांग्रेस के नेता चुनावी सभाओं में जनता से संवाद करने की तरकीब अपनाते हुए नजर आ रहे हैं। वह सभाओं में लोगों से सवालों को रखकर जवाब लेते हैं। कभी हाथ उठाकर कभी हां या नहीं पूछकर यह नेता जनता का मूड भांपने का प्रयत्न कर रहे हैं। पर कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के साथ दौरों और मीडिया कर्मियों के साथ अलग से संवाद में जनता अपने चुनावी मूड का खुलासा नहीं कर रही है।

कांग्रेस नेता आंकडों के जखीरों से हर सभा में यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा के दस साल शासन में मध्यप्रदेश बर्बाद हो गया, जबकि भाजपा के नेता उन्हीं विषयों पर अन्य दृष्टिकोण से आंकड़े देकर साबित करने का प्रयत्न कर रहे हैं कि मध्यप्रदेश नंबर एक राज्य बनने वाला है। लेकिन लोगों पर इस आंकड़ेबाजी का कोई असर नहीं दिख रहा है।

राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार दोनो पार्टियों की खूबियों और कमियों के कारण मुकाबला कांटे का नजर आ रहा है। भाजपा की कुशल रणनीति एवं चुनाव प्रबंधन मुख्यमंत्री की विनम्र एवं मृदुभाषी छवि तथा सरकारी उपलब्धियों के दावों के खिलाफ मंत्रियों और पार्टी विधायकों के खिलाफ जनाक्रोश कई सीटों पर भारी पड़ रहा है। भाजपा सरकार के ताकतवर मंत्री कैलाश विजयवर्गीय, लक्ष्मीकांत शर्मा, उमाशंकर गुप्ता, सरताज सिंह, विजय शाह, राजेन्द्र शुक्ल, रंजना बघेल, रामकृष्ण कुसमारिया, जयंत मलैया, बृजेन्द्र प्रताप सिंह, अनूप मिश्रा सहित करीब एक दर्जन मंत्री कड़ी चुनौतीयों का सामना कर रहे हैं।

प्रेक्षकों का कहना है कि कांग्रेस की स्थिति भी इसी तरह से दो पाटों में फंसी है। केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रचार अभियान का अध्यक्ष बनाए जाने से राज्य के कांग्रेस कार्यकताओं में उत्साह का संचार हुआ था लेकिन टिकटों के वितरण में असंतोष और नेतृत्व के विकेन्द्रीकरण के कारण यह उत्साह तिरोहित हो गया है।

मुख्यमंत्री श्री चौहान के खिलाफ विदिशा और बुधनी में कांग्रेस के उम्मीदवार शशांक भार्गव और डॉ. महेन्द्र सिंह चौहान के लिए पार्टी के बड़े नेता प्रचार के लिए नहीं गए हैं। कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने भाजपा के मुख्यमंत्री को घेरने की बजाय 'वाक ओवर' दे दिया है।

श्री भार्गव और डॉ. महेन्द्र सिंह चौहान इससे खासे नाराज बताए जाते हैं। उनका मानना है कि पार्टी ने उन्हें बलि का बकरा बनाया है। कई सीटों पर अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ कई बड़े नेताओं के करीबी बागी उम्मीदवार बन गए हैं, जो कांग्रेस की सत्ता की राह को रोकने में सक्षम हैं। पार्टी के कई उम्मीदवार तो ऐसे हैं जो जीत कठिन जानकर पार्टी फंड बचाने के लिए चुनाव प्रचार में उदासीन हो गए हैं।

उधर उत्तरप्रदेश से लगी सीमा से लगे चंबल क्षेत्र, बुन्देलखंड और विंध्य क्षेत्र में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी जोर लगा रखा है। जनता दल यूनाइटेड ने गोडवाना गणतंत्र पार्टी से गठजोड़ करके अपने उम्मीदवार उतारे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार इस बार निर्दलीय तथा सपा एवं बसपा को लगभग 15 सीटें मिल सकतीं हैं। मुमकिन है कि भाजपा और कांग्रेस स्पष्ट बहुमत से दूर रह जाए और तब सरकार बनाने के लिए निर्दलियों एवं सपा बसपा के समर्थन की जरूरत पड़े।

मुख्यमंत्री सहित भाजपा नेताओं तथा कांग्रेस के नेताओं की दिल की धड़कनें बढीं हुई हैं। किसी को भी सत्ता में आने का पक्का यकीन नहीं है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि आठ दिसंबर तक इन पार्टियों में अंदरुनी उठापटक भी काबू में रहेगी। राज्य में सभी 230 सीटों के लिए मतदान 25 नवंबर को होगा और इसके लिए 2583 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।

भाजपा ने यहां पर बड़ा उलटफेर करते हुए टिकट के प्रमुख दावेदार पूर्व मंत्री दलीचन्द्र महिरडा को टिकिट से वंचित रखा तथा पूर्व सांसद एवं पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष पर दांव खेलते हुए उन्हें श्री बामणिया के खिलाफ मुकाबले में उतारा है। पार्टी के इस निर्णय से नाराज होकर महिरडा चुनावी जंग में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उतर गए हैं।

भाजपा प्रत्याशी रावत के विधानसभा क्षेत्र से बाहर के होने के कारण भीतरघात की संभावना भी जताई जा रही है। बांसवाडा विधानसभा क्षेत्र में वर्तमान में एक लाख 99 हजार 367 मतदाता हैं जिसमें 101955 पुरुष एवं 97 हजार 412 महिला मतदाता शामिल हैं। इस विधानसभा क्षेत्र से 60 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति वर्ग के मतदाता हैं।

दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के अलावा यहां से जदयू के राजेश कुमार, बसपा के कचरुलाल सहित पांच प्रत्याशी चुनावी जंग में हैं। बांसवाडा विधानसभा सीट से वर्ष 1952 में स्वतंत्र पार्टी के बेलजी भाई वर्ष 1957 में मोगजी भाई फिर 1962 में मोगजी भाई तथा वर्ष 1967 से वर्ष 1993 तक लगातार सात बार पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी जीते।

वर्ष 1998 में रमेशचन्द्र (कांग्रेस) वर्ष 2003 में भाजपा के भवानी जोशी तथा वर्ष 2008 में अर्जुन बामणिया (कांग्रेस) विजयी रहे थे। (वार्ता)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi