छत्तीसगढ़ में पर्यटन को आकर्षक एवं नया स्वरूप गढ़े बगैर सैलानियों की संख्या में वृद्घि संभव नहीं। छत्तीसगढ़ को पर्यटन-हब के तौर पर विकसित करने की चाह वास्तव में, राज्य शासन के लिए एक दिवा स्वप्न बनकर रह गया है। हालांकि, पर्यटन के विकास की खातिर राज्य सरकार की ओर से करोड़ों रुपए फूंके गए हैं। इस दिशा में यह एक चिंतनीय प्रश्न बनकर रह गया है।
कमाल की बात तो यह है कि छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थल अपनी नैसर्गिक, नयनाभिराम और मनोरम छटा के लिए आकर्षित करने में किसी अन्य राज्य से किसी तरह कम नहीं है। फिर ऐसी कौन सी वजह है कि सैलानियों की संख्या में कमी देखी जा रही है?
साफ जाहिर है कि संभावनाओं का अभाव न होने के बावजूद सुविधाओं की कमी कहीं न कहीं सैलानियों को कचोटती अवश्य है। निःसंदेह इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि देसी-विदेशी सैलानी यदि पर्यटन स्थल से जुड़ नहीं पा रहे हैं तो उन्हें इस दिशा में पर्यटन संबंधी व्यवधानों से दो-दो हाथ करना पड़ता होगा।
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यह तथ्य निश्चित तौर पर स्वाभाविक ही है कि किसी भी पर्यटन स्थल से सैलानियों का मोहभंग तभी होता है जब उन्हें स्थानीय तौर पर आवास, भोजन व परिवहन की परिशानियों से जूझना पड़ता है।
पर्यटन स्थलों में बस्तर के वनांचलों का अपना एक विशेष महत्व है। लेकिन, इस समूचे आकर्षक इलाके में नक्सलियों की पैठ के चलते, विदेशी तो दूर देसी पर्यटक भी आने से कतराते हैं। इन सैलानियों के मनो-मस्तिष्क पर आए दिन अखबारों की सुर्खियां नक्सलियों के हिंसक वारदातों का हवाला लिए चस्पा रहती हैं। ऐसे हालात में नक्सलियों के खौफ पर्यटकों की राह में रोड़ा बने हुए हैं।
इस दिशा में पर्यटन मंत्री राज्य के पर्यटन स्थलों को आकर्षक बनाए रखने के लिए होटल्स एवं मोटल्स प्रारंभ किए जाने का भी खुलासा करते हैं। उनकी ओर से मैनपाट जैसे नैसर्गिक-श्रृंगार वाले स्थलों को भी आकर्षक स्वरूप देने की कोशिश की जा रही है। जिन दिक्कतों की वजह से सैलानियों की संख्या सिकुड़ती जा रही है, उन कारणों की व्यापक परिप्रेक्ष्य में पड़ताल करनी होगी।
चूंकि, पर्यटकों का बिदकना बगैर प्रभावी कारणों के कतई संभव नहीं है। राज्य सरकार के लिए पर्यटन को उद्योग का दर्जा देना तो तभी सफल हो सकेगा, जब पड़ोसी राज्यों की बसाहट का वह भरपूर सहयोग उठा पाने में अपनी तजवीजों को ठोस बना सके। शासकीय मिशनरियों को इस दिशा में पर्यटकों के मनोभावों का आकलन करते हुए अन्य कमियों या त्रुटियों को भी दूर करने की पहल करनी होगी। तभी कोई बात बन सकेगी।
इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय विशेषताओं की सही व्याख्या करने वाले गाइडों की भी उचित व्यवस्था करनी होगी। कहने का स्पष्ट अभिप्राय यह है कि सहयोग देकर ही सहयोग हासिल किया जा सकता है।