इंदौर में एक 13 साल के छात्र ने ऑनलाइन फ्री फायर गेम मात्र 2800 रुपए हारने के बाद फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। शहर के एमआईजी थाान क्षेत्र के अनुराग नगर में रहने वाले सातवी क्लास के आकलन जैन ऑनलाइन फ्री फायर गेम खेलता था और अपनी मां के डेबिट कार्ड को लिंक कर लिया था। पिछले दिनों वह गेम में 2800 रुपए हार गए जिसके बाद वह तनाव में रहने लगा और परिजनों की डांट के डर से फांसी लगाकर सुसाइड कर लिया। गुरुवार रात सबसे पहले दादा ने आकलन को फांसी के फंदे पर झूलका देखा, जिसके बाद घर में कोहराम मच गया और परिजन तुरंत उसे डीएनएस अस्पताल ले गए, लेकिन डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
ऑनलाइन फ्री फायर गेम की लत के चलते लगातार मासूम बच्चों के आत्महत्या करने के मामले सामने आ रहे है। वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ सत्यकांत त्रिवेदी कहते हैं कि इंदौर में 7वीं के छात्र द्वारा 2800 रुपये हारने पर आत्महत्या कर लेना एक खतरनाक और गहराई से सोचने लायक संकेत है। यह केवल “गेम की लत” का मामला नहीं है बल्कि बच्चों की भावनात्मक परिपक्वता, आत्मसम्मान और पारिवारिक संवाद की गुणवत्ता पर सवाल उठाता है।
ओवरथिंकिंग से आजादी पुस्तक के लेखक डॉ. सत्कांत त्रिवेदी कहते हैं कि ऑनलाइन बैटल गेम्स जैसे फ्री फायर न केवल तेज़ डोपामिन रिवार्ड सिस्टम से बच्चे को जोड़ते हैं बल्कि जीत-हार और रिवॉर्ड को उनकी पहचान और आत्मसम्मान से जोड़ देते हैं। जब कोई बच्चा उसमें पैसे हारता है तो उसे न केवल आर्थिक हानि बल्कि "मैं फेल हो गया" जैसी तीव्र आत्मग्लानि होती है।
वह कहते हैं कि यदि बच्चा आर्थिक हानि के बाद यह सोचकर जान दे कि अब डांट पड़ेगी, मुझे माफ नहीं किया जाएगा तो यह पारिवारिक संवाद की विफलता को दर्शाता है। बच्चों के साथ डर की बजाय भरोसे का रिश्ता ज़रूरी है। उन्हें गलती के बाद भी सुनने और समझने वाला घर चाहिए। कम उम्र में आत्महत्या करने वाले बच्चों में अक्सर भावनात्मक लचीलापन नहीं होता। एक छोटी विफलता भी उन्हें असहनीय लगती है। स्कूलों में इमोशनल कोपिंग स्किल्स और डिजिटल हेल्थ की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।
पैसे खर्च करने या गलती करने पर गुस्से के बजाय चर्चा का वातावरण बनाएं। अगर बच्चा गलती छुपा रहा है तो यह डर की निशानी है। बच्चे के व्यवहार में बदलाव, मोबाइल पर बढ़ा समय, अकेलेपन की प्रवृत्ति आदि संकेतों को नज़रअंदाज़ न करें। हमें यह समझना होगा कि बच्चों का आत्महत्या तक पहुंचना केवल एक व्यक्तिगत घटना नहीं बल्कि सामूहिक सामाजिक विफलता है जिसमें परिवार, स्कूल, समाज और शासन-प्रशासन सभी शामिल हैं। हर स्क्रीन के पीछे एक संवेदनशील मन है। बच्चे जब ऑनलाइन दुनिया में उतरते हैं तो उन्हें तकनीक नहीं साथ चाहिए। अभिभावक, शिक्षक और समाज तीनों को मिलकर इस डिजिटल दौर में बच्चों के भावनात्मक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी होगी।