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महाभारत युद्ध से पहले ही श्रीकृष्ण ने इनको निपटा दिया था वरना हो जाता गजब

हमें फॉलो करें महाभारत युद्ध से पहले ही श्रीकृष्ण ने इनको निपटा दिया था वरना हो जाता गजब

अनिरुद्ध जोशी

, बुधवार, 5 दिसंबर 2018 (15:44 IST)
महाभारत में कई महान योद्धाओं ने युद्ध लड़ा था। कौरवों की सेना पांडवों की सेना से कहीं ज्यादा शक्तिशाली थी। लेकिन कौरवों की ओर से लड़ने वाले कुछ और भी महान योद्धा थे जिनको महाभारत के युद्ध के पहले ही भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी युक्ति से निपटा दिया था।  यदि वे ऐसा नहीं करते या नहीं कर पाते तो आज महाभारत का इतिहास कुछ और होता। जानिए उन्हीं योद्धाओं के बारे में।
 
 
1 .कंस : कंस से युद्ध तो श्रीकृष्‍ण ने जन्म लेते ही शुरू कर दिया था। कंस के कारण ही तो श्रीकृष्ण को ताड़का, पूतना, शकटासुर आदि का बचपन में ही वध करना पड़ा। भगवान कृष्ण का मामा था कंस। वह अपने पिता उग्रसेन को राजपद से हटाकर स्वयं शूरसेन जनपद का राजा बन बैठा था। कंस बेहद क्रूर था। कंस अपने पूर्व जन्म में 'कालनेमि' नामक असुर था जिसे भगवान विष्णु अवतार श्रीराम ने मारा था। कंस का श्वसुर जरासंध था। सोचीए यदि कंस जिंदा होता तो वह भी कौरवों की ओर से ही लड़ रहा होता।
 
 
2.चाणूर और मुष्टिक से युद्ध : श्रीकृष्‍ण ने 16 वर्ष की उम्र में चाणूर और मुष्टिक जैसे खतरनाक मल्लों का वध किया था। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था। कहते हैं कि यह मार्शल आर्ट की विद्या थी। पूर्व में इस विद्या का नाम कलारिपट्टू था। जनश्रुतियों के अनुसार श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है। कलारिपट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। इसी कारण 'नारायणी सेना' भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी। श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध राष्ट्रों में खूब फली-फूली।
 
 
3.कालयवन से युद्ध : पुराणों के अनुसार जरासंध ने 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। 17 बार वह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम संदेश भेजा और युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं? कालयवन ने स्वीकार कर लिया।
 
 
कृष्ण और कालयवन का युद्ध हुआ और कृष्‍ण रण की भूमि छोड़कर भागने लगे, तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए। कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन ने उसे कृष्ण समझकर कसकर लात मार दी और वह मनुष्य उठ पड़ा। उसने जैसे ही आंखें खोली और इधर-उधर देखने लगे, तब सामने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले, वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे, जो तपस्वी और प्रतापी थे।
 
 
4.जरासंध : महाभारत के अलावा पुराणों में भी जरासंध की चर्चा बहुत बार होगी है। यह मगध का और भारत का सबसे शक्तिशाली सम्राट था। कंस का ससुर था जरासंध। कंस के वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण को सबसे ज्यादा यदि किसी ने परेशान किया तो वह था जरासंध। जरासंध के कहने पर ही कालयवन अपनी सेना लेकर मथुरा आया था।
 
 
जरासंध यदि महाभारत के युद्ध में होता तो युद्ध का रुख कुछ और होता। लेकिन श्रीकृष्ण को मालूम था कि महाभारत का युद्ध होना है उसके पहले ही उन्होंने कई महान योद्धाओं में से एक जरासंध को भी मारने की युक्ति सोच ली थी।
 
 
दरअसल, जरासंध को किसी भी तरह से नहीं मारा जा सकता था। क्योंकि उसके दो टूकड़े होने के बाद भी वह पुन: जुड़कर जिंदा हो जाता था। एक बार श्रीकृष्ण पांडवों के साथ उसका वध करने के लिए उसी के राज्य में गए और उन्होंने जरासंध के अखाड़े में ही भीष से उसको चुनौती दिलवा दी। जरासंध को कुश्ती का बहुत शोक था।
 
 
भीम ने श्रीकृष्ण के इशारे पर उसकी जंघा पकड़कर उसके दो टूकड़े कर दिए लेकिन वह फिर जुड़कर जिंदा हो जाता था। तब 14वें दिन श्रीकृष्ण ने एक तिनके को बीच में से तोड़कर उसके दोनों भाग को विपरीत दिशा में फेंक दिया। भीम, श्रीकृष्ण का यह इशारा समझ गए और उन्होंने वहीं किया। उन्होंने जरासंध को दोफाड़ कर उसके एक फाड़ को दूसरे फाड़ की ओर तथा दूसरे फाड़ को पहले फाड़ की दिशा में फेंक दिया। इस तरह जरासंध का अंत हो गया, क्योंकि विपरित दिशा में फेंके जाने से दोनों टुकड़े जुड़ नहीं पाए।
 
 
5.बर्बरीक : भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक का वध नहीं किया था लेकिन उन्होंने एक रणनीति के तहत बर्बरीक की शक्ति पहचान कर उसको युद्ध से अलग कर दिया था। भीम पौत्र और घटोत्कच के पुत्र दानवीर बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरवों और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। कहते हैं कि उसने कहा था कि जो भी सेना हार रही होगी मैं उसकी ओर से लडूंगा। इस तरह वो दोनों ही सेना का संहार कर देता। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने दान में उसका शीश मांग लिया था। उसकी इच्‍छा थी कि वह महाभारत का युद्ध देखे तो श्रीकृष्‍ण ने उसको वरदान देकर उसका शीश एक जगह रखवा दिया। जहां से उसने महाभारत का संपूर्ण युद्ध देखा। उन्हीं बर्बरीक को आज खाटू श्याम के नाम से जाना जाता है।
 
 
6. पौंड्रक : पौंड्रक चुनार देश का प्राचीन नाम करुपदेश था। वहां के राजा का नाम पौंड्रक था। कुछ मानते हैं कि पुंड्र देश का राजा होने से इसे पौंड्रक कहते थे। कुछ मानते हैं कि वह काशी नरेश ही था। चेदि देश में यह 'पुरुषोत्तम' नाम से सुविख्यात था। इसके पिता का नाम वसुदेव था। इसलिए वह खुद को वासुदेव कहता था। पौंड्रक को उसके मूर्ख और चापलूस मित्रों ने यह बताया कि असल में वही परमात्मा वासुदेव और वही विष्णु का अवतार है, मथुरा का राजा कृष्ण नहीं। कृष्ण तो ग्वाला है। पुराणों में उसके नकली कृष्ण का रूप धारण करने की कथा आती है।
 
 
राजा पौंड्रक नकली चक्र, शंख, तलवार, मोर मुकुट, कौस्तुभ मणि, पीले वस्त्र पहनकर खुद को कृष्ण कहता था। एक दिन उसने भगवान कृष्ण को यह संदेश भी भेजा था कि 'पृथ्वी के समस्त लोगों पर अनुग्रह कर उनका उद्धार करने के लिए मैंने वासुदेव नाम से अवतार लिया है। भगवान वासुदेव का नाम एवं वेषधारण करने का अधिकार केवल मेरा है। इन चिह्रों पर तेरा कोई भी अधिकार नहीं है। तुम इन चिह्रों एवं नाम को तुरंत ही छोड़ दो, वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।' भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली। इसके बाद युद्ध हुआ और पौंड्रक का वध कर श्रीकृष्ण पुन: द्वारिका चले गए।
 
 
7.एकलव्य : महाभारत काल में प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। हिरण्यधनु के मृत्यु के बाद एकलव्य वहां का राजा बना। विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण के अनुसार एकलव्य अपनी विस्तारवादी सोच के चलते जरासंध से जा मिला था। जरासंध की सेना की तरफ से उसने मथुरा पर आक्रमण करके एक बार यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था।
 
 
यादव सेना के सफाया होने के बाद यह सूचना जब श्रीकृष्‍ण के पास पहुंचती है तो वे भी एकलव्य को देखने को उत्सुक हो जाते हैं। दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखकर वे समझ जाते हैं कि यह पांडवों और उनकी सेना के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। तब श्रीकृष्‍ण का एकलव्य से युद्ध होता है और इस युद्ध में एकलव्य वीरगति को प्राप्त होता है।
 
 
हालांकि यह भी कहा जाता है कि युद्ध के दौरान एकलव्य लापता हो गया था। अर्थात उसकी मृत्यु बाद में कैसे हुई इसका किसी को पता नहीं है। एकलव्य के वीरगति को प्राप्त होने या लापता होने के बाद उसका पुत्र केतुमान सिंहासन पर बैठता है और वह कौरवों की सेना की ओर से पांडवों के खिलाफ लड़ता है। महाभारत युद्ध में वह भीम के हाथ से मारा जाता है।
 
 
8.नरकासुर : नरकासुर को भौमासुर भी कहा जाता है। कृष्ण अपनी आठों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक द्वारिका में रह रहे थे। एक दिन स्वर्गलोक के राजा देवराज इंद्र ने आकर उनसे प्रार्थना की, 'हे कृष्ण! प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। क्रूर भौमासुर ने वरुण का छत्र, अदिति के कुंडल और देवताओं की मणि छीन ली है और वह त्रिलोक विजयी हो गया है।' इंद्र ने कहा, 'भौमासुर ने पृथ्वी के कई राजाओं और आमजनों की अति सुन्दर कन्याओं का हरण कर उन्हें अपने यहां बंदीगृह में डाल रखा है। कृपया आप हमें बचाइए प्रभु।'
 
 
इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरूड़ पर सवार हो प्रागज्योतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य सहित मुर के 6 पुत्रों- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का संहार किया। मुर दैत्य का वध हो जाने का समाचार सुन भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला। भौमासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध के बाद अंत में कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से उसका वध कर डाला। इस प्रकार भौमासुर को मारकर श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसे प्रागज्योतिष का राजा बनाया। भगदत्त कौरवों की ओर से महाभारत युद्ध में लड़ता है।
 
 
9.शिशुपाल : श्रीकृष्ण ने प्रण किया था कि मैं शिशुपाल के 100 अपमान क्षमा करूंगा अर्थात उसे सुधरने के 100 मौके दूंगा। शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। वह भी रुक्मणि से विवाह करना चाहता था। रुक्मणि के भाई रुक्म का वह परम मित्र था। रुक्म अपनी बहन का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था और रुक्मणि के माता-पिता रुक्मणि का विवाह श्रीकृष्ण के साथ करना चाहते थे, लेकिन रुक्म ने शिशुपाल के साथ रिश्ता तय कर विवाह की तैयारियां शुरू कर दी थीं। कृष्ण रुक्मणि का हरण कर ले आए थे। तभी से शिशुपाल कृष्ण का शत्रु बन बैठा।
 
   
चेदि के यादव वंशी राजा शिशुपाल कंस और जरासंध मित्र था। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को घेरने के लिए जरासंध का हर मौके पर साथ दिया था। शिशुपाल को यह भी मालूम था कि श्रीकृष्ण मुझे 100 अपराध करने तक नहीं मारेंगे। कालांतर में शिशुपाल ने अनेक बार श्रीकृष्ण को अपमानित किया और उनको गाली दी, लेकिन श्रीकृष्ण ने उन्हें हर बार क्षमा कर दिया।
 
 
एक बार की बात है कि जरासंघ का वध करने के बाद श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम इन्द्रप्रस्थ लौट आए, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारी करवा दी। यज्ञ पूजा के बाद यज्ञ की शुरुआत के लिए समस्त सभासदों में इस विषय पर विचार होने लगा कि सबसे पहले किस देवता की पूजा की जाए? तब सहदेवजी उठकर बोले- श्रीकष्ण ही सभी के देव हैं जिन्हें ब्रह्मा और शंकर भी पूजते हैं, उन्हीं को सबसे पहले पूजा जाए। पांडु पुत्र सहदेव के वचन सुनकर सभी ने उनके कथन की प्रशंसा की। भीष्म पितामह ने स्वयं अनुमोदन करते हुए सहदेव का समर्थन किया। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन आरंभ किया।
 
 
इस कार्य से चेदिराज शिशुपाल अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और बोला, 'हे सभासदों! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कालवश सभी की मति मारी गई है। क्या इस बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति इस सभा में नहीं है, जो इस बालक की हां में हां मिलाकर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार कर ली गई है? क्या इस कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में और कोई भी बड़ा नहीं है? क्या इस गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहां नहीं है? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता है? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता है? न इसका कोई कुल है, न जाति, न ही इसका कोई वर्ण है। राजा ययाति के शाप के कारण राजवंशियों ने इस यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा है। यह जरासंघ के डर से मथुरा त्यागकर समुद्र में जा छिपा था। भला यह किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी है?'

 
इस प्रकार शिशुपाल श्रीकृष्ण को अपमानित कर गाली देने लगा। यह सुनकर शिशुपाल को मार डालने के लिए पांडव, मत्स्य, केकय और सृचयवर्षा नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए, किंतु श्रीकृष्ण ने उन सभी को रोक दिया। वहां वाद-विवाद होने लगा, परंतु शिशुपाल को इससे कोई घबराहट न हुई। कृष्ण ने सभी को शांत कर यज्ञ कार्य शुरू करने को कहा।
 
 
किंतु शिशुपाल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने फिर से श्रीकृष्ण को ललकारते हुए गाली दी, तब श्रीकृष्ण ने गरजते हुए कहा, 'बस शिशुपाल! मैंने तेरे एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी इसीलिए अब तक तेरे प्राण बचे रहे। अब तक सौ पूरे हो चुके हैं। अभी भी तुम खुद को बचा सकने में सक्षम हो। शांत होकर यहां से चले जाओ या चुप बैठ जाएं, इसी में तुम्हारी भलाई है।'
 
 
लेकिन शिशुपाल पर श्रीकृष्ण की चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुए श्रीकृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कटकर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्ण के भीतर समा गई।
 
 
अंत में महाभारत युद्ध के समय सारे भारतवर्ष में सिर्फ दो ही राजा युद्ध में शामिल नहीं हुए थे, एक बलराम और दूसरे भोजकट के राजा और रुक्मणि के बड़े भाई रुक्मी थे। बलराम ने युद्ध में इसलिए भाग नहीं लिया था क्योंकि कौरव और पांडव दोनों ही उनके प्रिय थे। जिस समय युद्ध की तैयारियां हो रही थीं तब बलराम, पांडवों की छावनी में अचानक जा पहुंचे। सभी ने उनका आदर किया। फिर उन्होंने बड़े व्यथित मन से कहा कि कितनी बार मैंने कृष्ण को कहा कि हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं। कृष्ण को अर्जुन के प्रति स्नेह इतना ज्यादा है कि वे कौरवों के विपक्ष में हैं। अब जिस तरफ कृष्ण हों, उसके विपक्ष में कैसे जाऊं? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा सीखी है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा स्नेह है। इन दोनों कुरुवंशियों को आपस में लड़ते देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता अतः में तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं।

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