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Mahabharat 3 May Episode 73-74 : कर्तव्य पालन के मार्ग पर तो मृत्यु भी कल्याणकारी

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अनिरुद्ध जोशी

, रविवार, 3 मई 2020 (20:01 IST)
बीआर चौपड़ा की महाभारत के 3 मई 2020 के सुबह और शाम के 73 और 74वें एपिसोड में श्रीकृष्ण अर्जुन की दुविधा मिटाकर ज्ञान और कर्म योग की शिक्षा देते हैं। इस बीच धृतराष्ट्र और संजय का बहुत ही रोचक संवाद बताया जाता है।
 
दोपहर के एपिसोड की शुरुआत श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद से होती है। अर्जुन बार-बार श्रीकृष्ण से युद्ध नहीं करने की बात करते हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुख-दुख, जय-पराजय को समान समझो और युद्ध करो। युद्ध में विजय हुए तो धरती का राज्य भोगोगे और पराजय हुई तब भी यश के साथ स्वर्ग पाओगे।
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि इस युद्ध से लाभ क्या होगा? श्रीकृष्ण कहते हैं कि लाभ-हानि, जय-पराजय से ऊपर उठो पार्थ। अर्जुन कहते हैं कि मुझसे तो नहीं उठा जा रहा है केशव। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब तक मैं तुम्हें ज्ञान और विवेक की दृष्टि से समझा रहा था लेकिन अब तुम व्यावहारिक दृष्टि से समझो।
 
युद्ध में भाग लेना आवश्यक है। क्योंकि तुम्हारा कायर, पलायन और कलंक में डूबो देने वाला शोक ना तुम्हारे हित में है और ना समाज के हित में। यह शोक ना वर्तमान के हित में ना भविष्य के हित में। तुम केवल कर्म करो और फल की इच्‍छा मत करो। क्योंकि परिणाम तुम्हारे हाथ में नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण निष्काम कर्म की शिक्षा देते हैं।
 
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इधर, धृतराष्ट्र कहते हैं संजय से कि यही कृष्ण कल शांति की बात कर रहा था और आज शांति के विषय में यह एक शब्द भी नहीं बोल रहा है। युद्ध के लिए अर्जुन को बहका रहा है। वह यह चाहता था कि इतिहास मेरी दाढ़ी पकड़कर कहे कि शांति के द्वार तुने बंद किए थे। संजय कहते हैं कि वे बैर की बात नहीं कर रहे हैं वे तो कुंती पुत्र को धर्म और अधर्म की बात समझा रहे हैं। संजय फिर से युद्ध की ओर देखता है।
 
श्रीकृष्ण स्थितिप्रज्ञ की बात करते हैं। कर्म से ज्ञान को उत्तम बताते हैं। तब अर्जुन कहते हैं कि कर्म से ज्ञान उत्तम है तो आप मुझे ये लहूलुहान करने का कर्म करने को क्यूं कह रहे हैं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं ज्ञान योग भी कर्म के मार्ग से ही होकर गुजरता है। कर्म से बचा नहीं जा सकता। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि लोग तुम्हारे पथ पर चलेंगे तुम्हें दृष्टांत मानकर। इसलिए तुम्हारा कर्म करना जरूरी है। लेकिन अर्जुन नहीं समझता है और कहता है कि तब आप क्यों ये कर्म करते हैं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि त्रिलोक में मेरे लिए कुछ करना आवश्यक नहीं पार्थ और त्रिलोक में ऐसा भी कुछ नहीं जिसे मैं प्राप्त करना चाहूं और प्राप्त न कर सकूं। फिर भी मैं तुम्हारे सामने हूं। कर्म कर रहा हूं। ये दिखला रहा हूं और ये सिखा रहा हूं कि निष्काम कर्म के मार्ग पर चलकर जीवन व्यतीत करना संभव है।
इधर, धृतराष्ट्र यह सुनकर संजय से कहते हैं कि हे संजय वासुदेव ने ये क्या कहा? तब संजय कहता है कि महाराज यहां पर तो वासुदेव श्रीकृष्ण के स्वर ही बदले हुए हैं। जैसे ये स्वयं वो नहीं, कोई और बोल रहा है। स्वयं नारायण के अतिरिक्त तो इस शैली में कोई और बोल ही नहीं सकता। वे कह रहे हैं कि त्रिलोक में उनके करने योग्य कुछ है ही नहीं फिर भी वे कर्म कर रहे हैं। यदि वे कर्म नहीं करेंगे तो संसार उन्हें दृष्टांत मानकर कर्म को त्याग देगा। धृतराष्ट्र कहते हैं कि यह तो कोई सामान्य व्यक्ति कह ही नहीं सकता, कहीं यह अहंकार का उच्चारण तो नहीं? इस पर संजय कहता है कि किंतु वासुदेव के उच्चारण में तो अहंकार था ही नहीं। तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि इसीने तो मुझे भयभीत कर दिया है संजय। संजय फिर युद्ध की ओर देखते हैं।
 
श्री कृष्ण कहते हैं, हे भारत कर्म तो अज्ञानी भी करते हैं लेकिन केवल अपने निजी स्वार्थ की दृष्टि से। ज्ञानी का कर्म तो नि:स्वार्थ होता है। लोक कल्याण के लिए होता है। इसलिए हे पार्थ अपने मन पर कोई बोझ न लो, अपना कर्म मुझे अर्पण कर दो और ये धर्म युद्ध करो। कर्तव्य पालन के मार्ग पर तो मृत्यु भी कल्याणकारी हो जाती है। यदि सगे संबंधियों का तुम्हें वध भी करना पड़े तब भी तुम्हें पाप नहीं लगेगा। क्योंकि कर्तव्य पालन पाप रहित होता है। धर्म का मार्ग पाप का मार्ग नहीं होता।
 
फिर श्रीकृष्ण आत्मा, परमात्मा, मन आदि की बात करके कहते हैं कि मैं तुम्हें वो योग बताने जा रहा हूं जो अब तक लुप्त है। इस योग को मैंने ही सूर्य को दिया था। और, सूर्य से ये मनु को मिला और मनु से इक्ष्वाकु तक पहुंचा।
 
तब अर्जुन आश्चर्य से पूछता है कि सूर्य को दिया था? आपने तो आधुनिक काल में जन्म लिया है लेकिन सूर्यदेव तो बहुत प्राचीनकाल के हैं तो मैं ये कैसे मान लूं कि आपने ये योग सृष्टि के प्रारंभ में सूर्य को दिया था। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारे और मेरे कई जन्म हो चुके हैं। मुझे उसका ज्ञान है लेकिन तुम्हें नहीं। मैं तो अजन्मा हूं। अपनी ही योगमाया से प्रकट होता रहता हूं। ऐसा कहते हुए श्रीकृष्ण 'यदा यदा ही धर्मस्य' वाला श्लोक कहते हैं। अर्जुन इस पर भी सवाल उठा देते हैं।
 
शाम के एपिसोड में भी अर्जुन को श्रीकृष्ण ज्ञान की बातें बताते हैं। वे ज्ञान और कर्म योग की चर्चा करते हैं। इधर संजय से धृतराष्ट्र श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातें सुनकर उत्सुक हो जाते हैं। वे भी ज्ञान की बातों में रस लेने लगते हैं।
 
श्रीकृष्ण गहन और गंभीर विषयों पर अर्जुन से चर्चा करते हैं। वे कहते हैं कि मैं हूं सबका आधार हूं। मैं ही जगत का पालक, संहारक और सृजनकर्ता हूं। तब श्रीकृष्ण से अर्जुन कहते हैं कि मैं फिर आपको जानूं कैसे? कृपया विस्तार से बताएं। तब श्रीकृष्ण बताते हैं कि मैं क्या हूं। वे कहते हैं कि मैं वृक्षों में पीपल हूं। गजों में ऐरावत और नागों में शेषनाग हूं। इसी तरह वे बताते हैं कि मैं किस में क्या हूं। अर्जुन कहता है कि हे वासुदेव अब मेरी आंखें खुल चुकी है। दुविधा और संशय के बादल हट चुके हैं लेकिन हे परमेश्वर मैं आपके ईश्‍वरीय रूप के दर्शन करना चाहता हूं।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपनी इन आंखों से तुम मुझे देख नहीं सकते हो। तब श्रीकृष्ण अर्जुन को दिव्य दृष्टि देते हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण विराट रूप प्रदर्शित करते हैं। यह देखकर अर्जुन अचंभित होकर नतमस्तक हो जाता है। अर्जुन भयभीत होकर कहता है कि हे देवेश्वर आप ‍फिर से अपने उसी मनुष्य रूप में आ जाएं।
इधर, धृतराष्ट्र कहते हैं कि ये कैसा रूप है संजय? स्तब्थ संजय कहता है कि मैं आपके लिए उनके इस विराट रूप का वर्णन नहीं कर सकता राजन। ये रूप तो केवल दिव्य दृष्टि वालों के लिए है। हे राजन आपने महर्षि वेदव्यास से दिव्य दृष्टि ले ली होती तो आप ये विराट रूप देखकर धन्य गए होते। संजय फिर से युद्ध भूमि की ओर देखता है।
 
अर्जुन रथ से नीचे उतरकर श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ते हैं और कहते हैं क्षमा प्रभु। अर्जुन उनसे क्षमा मांगता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरी भक्ति श्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी धर्म को त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ पार्थ। यदि तुम ऐसा करते हो तो तुम संपूर्ण रूप से मुझे प्राप्त करोगे। मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर दूंगा। तुम योगी की भांति निष्काम कर्म से युद्ध करो। यह सुनकर अर्जुन का सारा शोक चला जाता है और वह साहसी तरीके धनुष को प्राणाम करता है।
 
इधर, संजय कहते हैं कि कुंती पुत्र अर्जुन ने गांडिव उठा लिया महाराज। धृतराष्ट्र कहते हैं अर्थात युद्ध अब होकर ही रहेगा और हे संजय अब मैं इस युद्ध का परिणाम भी जान गया। फिर धृतराष्ट्र कहते हैं कि दुर्योधन को भी यदि युद्ध का परिणाम मालूम होता तो भी वह युद्ध करता क्योंकि वह क्षत्रिय है। तब संजय पूछते हैं कि यदि आप नेत्रहिन नहीं होते तो क्या आप युद्ध में जाते? यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं कि तुम्हें यह निर्दयी प्रश्न नहीं करना था संजय। किंतु कदाचित मैं यह युद्ध नहीं होने देता। यदि आप वास्तविकता जान गए हैं महाराज तो आप अभी यह युद्ध रोक क्यों नहीं देते? तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि नहीं संजय मैं छत्रिय हूं। अब युद्ध से पीठ नहीं दिखा सकता।
 
इधर, युद्धभूमि में भीष्म पितामह से दुर्योधन पूछता है कि पितामह हम लोग कब तक यहां खड़े-खड़े युद्ध की प्रतिक्षा करते रहेंगे? पितामह कहते हैं कि जब तक मैं युद्ध के आरंभ का शंख न बजाऊं पुत्र, तब तक युद्ध आरंभ नहीं करना है। दुर्योधन कहता है कि आप बजाते क्यों नहीं शंख? भीष्म कहते हैं कि अभी आंखें झपकाए बिना रणभूमि के मध्य निहारते रहो पुत्र। ये हमारी आंखों का सौभाग्य है कि वह यह दृश्य देख पा रही हैं। यह हमारे कर्मों का दुर्भाग्य है पुत्र कि हमें उस वार्तालाप का एक शब्द सुनाई नहीं दे रहा। आज मुझे दुख है कि मैं भीष्म क्यों हूं? मैं कुंती पुत्र अर्जुन क्यों नहीं हूं?
 
दुर्योधन कहता है कि अरे पितामह ये ग्वाला तो अर्जुन से यही कह रहा होगा कि इस युद्ध से बचने का कोई उपाय सोचो। क्योंकि आपके ध्वज के सामने जो सेना है उसके सामने इनकी सेना क्या टिकेगी और वासुदेव कोई मूर्ख थोड़े ही हैं जो मृत्यु और आत्महत्या का अंतर नहीं जानता।
 
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