बातचीत से ही मसला हल हो जाता तो महाभारत का युद्ध नहीं होता। ऐसे समय जबकि बातचीत के सारे विकल्प आजमा लिए गए थे और जब बातचीत असफल हो गई तब युद्ध शुरू हुआ। कुरुक्षेत्र में युद्ध के प्रथम ही दिन जब कुंतीपुत्र अर्जुन ने सामने खड़ी सेना में अपने बंधु और बांधवों को देखा तो अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक वचन कहने लगा।
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन-समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूं तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूं और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?
ऐसी बहुत सी बातें अर्जुन बोलकर रणभूमि में शोक से उद्विग्न होकर बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए। सोचीए सामने युद्ध खड़ा है। सभी बंधु-बांधव आपको मारने के लिए तैयार ही बैठे हैं और वे शोक नहीं कर रहे हैं लेकिन अर्जुन शोक कर रहा है। यदि अर्जुन ऐसे समय युद्ध नहीं करता है तो क्या होगा? कृष्ण यही अर्जुन को समझाते हैं।
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है। इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।
ऐसा कहने पर भी अर्जुन श्री गोविंद भगवान् से 'युद्ध नहीं करूंगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए। उन्होंने धनुष और बाण एक तरफ रख दिए।
तब श्रीकृष्ण ने शोक करते हुए उस अर्जुन को हंसते हुए से यह वचन बोले- हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है।
कृष्ण बोले, तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है। हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।
किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है। और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे। तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?। या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
अर्थात कृष्ण यह कह रहे हैं कि युद्ध के मैदान में जाने के बाद यदि तू युद्ध नहीं करता है तो इतिहास में सदियों तक तेरी अपकीर्ति होगी और अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है। अत: तू जय पराजय, परिणाम आदि की चिंता न करते हुए अब केवल युद्ध ही कर। यही छत्रियों का धर्म है।
ऐसा कहते भी हैं कि जो योद्धा या राजा युद्ध के परिणाम की चिंता करता है वह अपने जीवन और राज्य को खतरे में डाल देता है। परिणाम की चिंता करने वाला कभी भी साहसपूर्वक न तो निर्णय ले पाता है और न ही युद्ध कर पाता है। जीवन के किसी पर मोड़ पर हमारे निर्णय ही हमारा भविष्य तय करते हैं। एक बार निर्णय ले लेने के बाद फिर बदलने का अर्थ यह है कि आपने अच्छे से सोचकर निर्णय नहीं लिया या आपमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। लेकिन जब निर्णय ले ही लिया है कि अब युद्ध करना है तो फिर पीछे मुड़कर मत देख।