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अहिंसा के महान साधक थे भगवान महावीर स्वामी

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ललि‍त गर्ग

* महावीर बनने की तैयारी में जुटें
 
भगवान महावीर स्वामी आदमी को उपदेश और दृष्टि देते हैं कि धर्म का सही अर्थ समझो। धर्म तुम्हें सुख, शांति, समृद्धि, समाधि, आज, अभी दे या कालक्रम से दे, इसका मूल्य नहीं है। मूल्य है धर्म और वो तुम्हें समता, पवित्रता, नैतिकता, अहिंसा की अनुभूति कराता है।
 
महावीर का जीवन हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसमें सत्य धर्म के व्याख्या सूत्र निहित हैं। महावीर ने उन सूत्रों को ओढ़ा नहीं था, साधना की गहराइयों में उतरकर आत्मचेतना के तल पर पाया था। आज महावीर के पुनर्जन्म की नहीं बल्कि उनके द्वारा जीये गए आदर्श जीवन के अवतरण/पुनर्जन्म की अपेक्षा है। जरूरत है हम बदलें, हमारा स्वभाव बदले और हम हर क्षण महावीर बनने की तैयारी में जुटें तभी महावीर जयंती मनाना सार्थक होगा।
 
भगवान महावीर से जुड़ा एक पौराणिक प्रसंग है। इन्द्र ने देवों की एक परिषद बुलाई और सभी देवों के बीच में कहा- 'महावीर जैसा कष्ट-सहिष्णु मनुष्य इस पृथ्वी पर कोई नहीं है। यहां उपस्थित देवों में से कोई भी उन्हें अपने पथ से विचलित नहीं कर सकता।'
 
परिषद के सदस्य देवों ने इन्द्र की बात से सहमति व्यक्त की किंतु संगम नामक देव इन्द्र की बात से सहमत नहीं हुआ। उसने कहा- 'कोई भी मनुष्य इतना कष्ट-सहिष्णु नहीं हो सकता जिसे कि देवता भी अपनी शक्ति से विचलित न कर सकें। यदि आप मेरे कार्य में बाधक न बनें तो मैं उन्हें विचलित कर सकता हूं।'
 
इन्द्र को वचनबद्ध कर संगम मनुष्य लोक में आया। उसने महावीर को कष्ट देना शुरू किया। केवल 1 रात्रि में 20 बार मारक कष्ट दिए। उसने हाथी बनकर महावीर को आकाश में उछाला, वृश्चिक बनकर काटा, वज्र चींटियों का रूप धारण कर उनके शरीर को लहूलुहान किया, फिर भी महावीर के मन में कोई प्रकंपन नहीं हुआ। वे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अपनी साधना में लीन रहे।
 
आचार्य तुलसी ने इसी संदर्भ में कहा है कि विचलन तब होता है, जब व्यक्ति हिंसा से प्रताड़ित होता है। हिंसा की प्रताड़ना तब होती है, जब व्यक्ति संवेदन के साथ ध्यान को जोड़ता है और यह मानने लग जाता है कि कोई दूसरा उसे सता रहा है। अहिंसा का सूत्र है कि ध्यान को संवेदन के साथ न जोड़ें और किसी दूसरे को कष्टदाता न मानें।
 
भगवान महावीर अपने कर्म-संस्कारों के सिवाय किसी दूसरे को दु:ख देने वाला नहीं मानते थे और अपने ध्यान को चैतन्य से विलग नहीं करते थे इसलिए भयंकर कष्टों पर वातावरण पैदा करके भी संगम अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सका।
 
संगम ने महावीर को विचलित करने का दूसरा रास्ता अपनाया। उसने रूपसियों की कतार खड़ी की और महावीर को अपने प्रेमजाल में फंसाने का प्रयत्न शुरू कर दिया लेकिन वहां भी वह महावीर की साधना को भंग नहीं कर सका, क्योंकि महावीर की अहिंसा में प्रतिकूल और अनुकूल दोनों परिस्थितियों पर समान रूप से विजय प्राप्त करनी होती है। अनुकूल वातावरण में अविचलित रहना, प्रतिकूल वातावरण की विजय से अधिक कठिन है। पर चैतन्य की महाज्वाला के प्रदीप्त होने पर प्रतिकूल और अनुकूल दोनों ईंधन उसमें भस्म हो जाते हैं, उसे भस्म नहीं कर पाते।
 
संगम ने तरह-तरह के घातक और मर्मांतक प्रयोग किए, लेकिन वह महावीर को परास्त नहीं कर सका और उसका धैर्य विचलित हो गया। आखिर में हारकर उसने महावीर के पास आकर कहा- 'भंते! अब आप सुख से रहें। मैं जा रहा हूं। आपकी अहिंसा विजयी हुई है, मेरी हिंसा पराजित। मैं आपको कष्ट दे रहा था और आप मुझ पर करुणा का सुधासिंचन कर रहे थे। मैं आपको वेदना के सागर में निमज्जित कर रहा था और आप यह सोच रहे थे कि संगम मुझे निमित्त बनाकर हिंसा के सागर में डूबने का प्रयत्न कर रहा है। आपके मन में एक क्षण के लिए भी मुझ पर क्रोध नहीं आया। मुझे इसका दु:ख है कि मैंने आपको बहुत सताया किंतु मुझे इस बात का गर्व भी है कि समत्व की अनुपम प्रतिमा को मैंने अपनी आंखों से देखा।'
 
सचमुच महावीर अहिंसा के महान साधक एवं प्रयोक्ता थे! महावीर की अहिंसा जीवों को न मारने तक सीमित नहीं थी। उसकी सीमा सत्य-शोध के महाद्वार का स्पर्श कर रही थी। इसीलिए भगवान महावीर की मूल शिक्षा है- 'अहिंसा'। सबसे पहले 'अहिंसा परमो धर्म:' का प्रयोग हिन्दुओं का ही नहीं, बल्कि समस्त मानव जाति के पावन ग्रंथ 'महाभारत' के अनुशासन पर्व में किया गया था। लेकिन इसको अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलवाई भगवान महावीर ने।
 
भगवान महावीर ने अपनी वाणी से और अपने स्वयं के जीवन से इसे वह प्रतिष्ठा दिलाई कि अहिंसा के साथ भगवान महावीर का नाम ऐसा जुड़ गया कि दोनों को अलग कर ही नहीं सकते। अहिंसा का सीधा-साधा अर्थ करें तो वह होगा कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए दु:ख न दें। 
 
'आत्मान: प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत्' इस भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों से ऐसा व्यवहार करें, जैसा कि हम उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं, सभी जीव-जंतुओं के प्रति अर्थात पूरे प्राणीमात्र के प्रति अहिंसा की भावना रखकर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद आदि के लिए हत्या न तो करें और न ही करवाएं और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी उपभोग नहीं करें।
 
भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन तप और ध्यान की पराकाष्ठा है इसलिए वह स्वतः प्रेरणादायी है। भगवान के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है। भगवान महावीर चिन्मय दीपक हैं। दीपक अंधकार का हरण करता है किंतु अज्ञानरूपी अंधकार को हरने के लिए चिन्मय दीपक की उपादेयता निर्विवाद है। वस्तुत: भगवान के प्रवचन और उपदेश आलोक पुंज हैं। ज्ञान रश्मियों से आप्लावित होने के लिए उनमें निमज्जन जरूरी है। 

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