- प्रो. महावीर सरन जैन
भगवान महावीर ने मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्वस्त किया। उन्होंने जन्मना वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया। इस विश्व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा।
उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्य के महत्व का प्रतिपादन किया। ऊंच-नीच, उन्नत-अवनत, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं। जातिवाद अतात्विक है। सभी समान हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। श्रेष्ठता की सापेक्षिकता आचारमूलक है। समकालीन जनमानस ईश्वरवाद अथवा भाग्यवाद के कारण पुरुषार्थवाद को भुला बैठा था।
भगवान महावीर ने आत्मा को ही ईश्वर बतलाया। उन्होंने आत्मा को ही उपास्य माना। प्रत्येक प्राणी में आत्मा की सत्ता प्रतिपादित की। 'आत्मवत सर्वभूतेषु' को आपने व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वित किया। अध्यात्म साधना का मार्ग सभी के लिए खोल दिया। हरिकेशी चांडाल तथा सद्दाल पुत्त कुम्भकार आदि को दीक्षा देना उनकी समभाव दृष्टि का परिचायक है।
चंदनबाला को आर्यिका/ साध्वी संघ की प्रथम सदस्या बनाकर आपने स्त्रियों के लिए अलग ही संघ बना दिया। उनके युग में नारी की स्थिति संभवत: सम्मानजनक नहीं थी। मुनियों एवं श्रावकों की अपेक्षा आर्यिकाओं/ साध्वियों एवं श्राविकाओं की कई गुनी संख्या इस बात का प्रमाण है कि युगीन नारी-जाति महावीर की देशना से कितना अधिक भावित हुई।
भगवान की दृष्टि समभावी थी- सर्वत्र समता-भाव। वे संपूर्ण विश्व को समभाव से देखने वाले साधक थे, समता का आचरण करने वाले साधक थे। उनका प्रतिमान था- जो व्यक्ति अपने संस्कारों का निर्माण करता है, वही साधना का अधिकारी बनता है।
साभार - भगवान महावीर एवं जैन दर्शन