भगवान महावीर द्वारा वस्तु के स्वरूप की विराटता का साक्षात्कार उनके लिखे आलेखों से हो जाता है। इन अनेक गुण, अनंत धर्म (पहलू), उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त, स्वतंत्र, स्वावलंबी, विराट जड़ चेतन वस्तुओं के साथ हमारा सलूक क्या हो, यह महावीर की बुनियादी चिंता और उनके दर्शन का सार है।
महावीर ने वस्तु मात्र को उपादान और निमित्त की भूमिका देकर इस सलूक का निरूपण किया है। वे कहते हैं, वस्तु स्वयं अपने विकास या ह्रास का मूल कारण या आधार सामग्री या उपादान है। उपादान कारण खुद कार्य में बदलता है। घड़ा बनने में मिट्टी उपादान है। वह मिट्टी ही है जो घड़े में परिणत होती है।
उपादान स्वद्रव्य है। अंतरंग है। खुद की ताकत है। वह वस्तु की सहज शक्ति है। निमित्त परद्रव्य है। बहिरंग है। पर- संयोग और दूसरे की ताकत है। निमित्त कुम्हार की तरह सहकारी कारण है। निमित्त के बिना काम नहीं होता। लेकिन अकेले उसकी बरजोरी से भी काम नहीं होता। हर वस्तु खुद अपना उपादान है। सबको अपने पाँवों से चलना है। कोई किसी दूसरे के लिए नहीं चल सकता।
बेटे के लिए पिता या नौकर या कोई ठेकेदार पढ़ाई नहीं कर सकता। पढ़ना तो बेटे को ही पड़ेगा। यानी हमारा मददगार कितना ही अपना, छोटा या बड़ा क्यों न हो वह हमारे लिए उपादान नहीं बन सकता। सूत्रकृतांग (1/4/13) में भगवान महावीर ने कहा है।
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'सूरोदये पासति चक्खुणेव।' अर्थात सूर्य के उदय होने पर भी देखना तो आँखों को ही पड़ता है।
सवाल यह है कि अगर हम एक-दूसरे के लिए उपादान नहीं बन सकते तो क्या हम सब केवल मूकदर्शक हैं? अगर एक वस्तु का दूसरी से कोई सरोकार नहीं है तो यह तो सबका अलग खिचड़ी पकाना हुआ।
महावीर क्या इस अलग खिचड़ी पकाने का ही उपदेश देते हैं? दरअसल महावीर के चिंतन की यह दिशा नहीं है। वे हमारे अलगाव को स्वीकार करते हुए भी संसार के पदार्थों के साथ हमारे गहरे सरोकारों को भी रेखांकित करते हैं। उनका कहना है, दूसरों के लिए हम उपादान नहीं बन सकते लेकिन निमित्त बन सकते हैं। बेटे को पढ़ाई का माहौल तो दे सकते हैं।
हमारी भूमिका अपने लिए उपादान और दूसरों के लिए निमित्त की है। महावीर द्वारा दिया गया यह सूक्ष्म जीवन सूत्र ही नहीं जीवन जीने का स्थूल व्यवहार सूत्र भी है।