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ऊँचाई का आधार, श्रेष्ठ मूल्य और संस्कार!

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बहुत समय पहले की बात है। महाराष्ट्र में किसी जगह एक गुरु का आश्रम था। दूर-दूर से विद्यार्थी उनके पास अध्ययन करने के लिए आते थे। इसके पीछे कारण यह था कि गुरुजी नियमित शिक्षा के साथ व्यावहारिक शिक्षा पर भी बहुत जोर देते थे। उनके पढ़ाने का तरीका भी अनोखा था। वे हर बात को उदाहरण देकर समझाते थे जिससे शिष्य उसका गूढ़ अर्थ समझकर उसे आत्मसात कर सकें। वे शिष्यों के साथ विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ भी करते थे ताकि जीवन में यदि उन्हें किसी से शास्त्रार्थ करना पड़े तो वे कमजोर सिद्ध न हों।

एक बार एक शिष्य गुरु के पास आया और बोला- गुरुजी! आज मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ। गुरुजी बोले- ठीक है, लेकिन किस विषय पर? शिष्य बोला- आप अकसर कहते हैं कि सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ चुके मनुष्य को भी नैतिक मूल्य नहीं त्यागने चाहिए। उसके लिए भी श्रेष्ठ संस्कारों रूपी बंधनों में बँधा होना आवश्यक है। जबकि मेरा मानना है कि एक निश्चित ऊँचाई पर पहुँचने के बाद मनुष्य का इन बंधनों से मुक्त होना आवश्यक है, अन्यथा मूल्यों और संस्कारों की बेड़ियाँ उसकी आगे की प्रगति में बाधक बनती हैं। इसी विषय पर मैंआपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।

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शिष्य की बात सुनकर गुरुजी कुछ सोच में डूब गए और बोले- हम इस विषय पर शास्त्रार्थ अवश्य करेंगे, लेकिन पहले चलो चलकर पतंग उड़ाएँ और पेंच लड़ाएँ। आज मकर संक्रांति का त्योहार है। इस दिन पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है। गुरुजी की बात सुनकर शिष्य खुश हो गया। दोनों आश्रम के बाहर मैदान में आकर पतंग उड़ाने लगे। उनके साथ दो अन्य शिष्य भी थे जिन्होंने चकरी पकड़ी हुई थी।

जब पतंगें एक निश्चित ऊँचाई तक पहुँच गईं तो गुरुजी शिष्य से बोले- क्या तुम बता सकते हो कि ये पतंगें आकाश में इतनी ऊँचाई तक कैसे पहुँचीं? शिष्य बोला- जी गुरुजी! हवा के सहारे उड़कर ये ऊँचाई तक पहुँच गईं। इस पर गुरुजी ने पूछा- अच्छा तो फिर तुम्हारे अनुसार इसमें डोर की कोई भूमिका नहीं है?

शिष्य बोला- ऐसा मैंने कब कहा? प्रारंभिक अवस्था में डोर ने कुछ भूमिका निभाई है, लेकिन एक निश्चित ऊँचाई तक पहुँचने के बाद पतंग को डोर की आवश्यकता नहीं रहती। अब तो और आगे की ऊँचाइयाँ वो हवा के सहारे ही प्राप्त कर सकती है। अब देखिए गुरुजी! डोर तो इसकी प्रगति में बाधक ही बन रही है न? जब तक मैं इसे ढील नहीं दूँगा, यह आगे नहीं बढ़ सकती। देखिए इस तरह मेरी आज की बात सिद्ध हो गई। आप स्वीकार करते हैं इसे?

शिष्य के प्रश्न का गुरुजी ने कुछ जवाब नहीं दिया और बोले- चलो अब पेंच लड़ाएँ। इसके पश्चात्‌ दोनों पेंच लड़ाने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान में पेंच नहीं लड़ रहे बल्कि दोनों के बीच पतंगों के माध्यम से शास्त्रार्थ चल रहा हो। अचानक एक गोता देकर गुरु ने शिष्य की पतंग को काट दिया। कुछ देर हवा में झूलने के बाद पतंग जमीन पर आ गिरी। इस पर गुरु ने शिष्य से पूछा- पुत्र! क्या हुआ? तुम्हारी पतंग तो जमीन पर आ गिरी। तुम्हारे अनुसार तो उसे आसमान में और भी ऊँचाई को छूना चाहिए था। जबकि देखो मेरी पतंग अभी भी अपनी ऊँचाई पर बनी हुई है, बल्कि डोर की सहायता से यह और भी ऊँचाई तक जा सकती है। अब क्या कहते हो तुम?

शिष्य कुछ नहीं बोला। वह शांत भाव से सुन रहा था। गुरु ने आगे कहा- दरअसल तुम्हारी पतंग ने जैसे ही मूल्यों और संस्कारों रूपी डोर का साथ छोड़ा, वो ऊँचाई से सीधे जमीन पर आ गिरी।

यही हाल हवा से भरे गुब्बारे का भी होता है। वह सोचता है कि अब मुझे किसी और चीज की जरूरत नहीं और वह हाथ से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन जैसे ही हाथ से छूटता है, उसकी सारी हवा निकल जाती है और वह जमीन पर आ गिरता है। गुब्बारे को भी डोरी कीजरूरत होती है, जिससे बँधा होने पर ही वह अपने फूले हुए आकार को बनाए रख पाता है। इस तरह जो हवा रूपी झूठे आधार के सहारे टिके रहते हैं, उनकी यही गति होती है।

शिष्य को गुरु की सारी बात समझ में आ चुकी थी और पतंगबाजी का प्रयोजन भी। शास्त्रार्थ के इस अनोखे प्रयोग से अभिभूत वह अपने गुरु के कदमों में गिर पड़ा। गुरुजी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा कि यह मकर संक्रांति का सच्चा ज्ञान है। आज से तुम्हारे जीवन का सूर्य भी उत्तरायण की ओर गति करे और बढ़ते दिनों की तरह तुम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करो।

इस प्रकार जब वे अपने शिष्य को आशीर्वाद दे रहे थे कि थोड़ी ही दूर पर आपस में लड़ते दो शिष्यों की आवाज उन्हें सुनाई दी। उन्हें आश्रम में आए अधिक समय नहीं हुआ था। शिष्यों के पास पहुँचकर उन्होंने पूछा- क्या बात है? क्यों झगड़ रहे हो तुम दोनों? एक शिष्य बोला-गुरुजी! आज मकर संक्रांति के दिन मैं आपको तिल के लड्डू खिलाना चाहता था। लेकिन मेरा यह सहपाठी कहता है कि पहले मैं खिलाऊँगा। जब विचार पहले मेरे मन में आया है तो मुझे पहले खिलाने का अधिकार है। लेकिन यह बेईमानी कर रहा है। इसे मुझसे ईर्ष्या है। आपही बताएँ कि उचित क्या है?

गुरुजी बोले- बच्चों! मैं तुम दोनों की भावना समझता हूँ। लेकिन तुम्हारी भावना में अभी इस त्योहार की सच्ची भावना सम्मिलित नहीं है। इसलिए तुम आपस में झगड़ रहे हो। मकर संक्रांति के दिन तिल के लड्डू इसी भाव से खिलाए जाते हैं कि हमारे बीच जो भी मतभेद या मनभेद हैं वे नष्ट हों और हम बैर भाव भुलाकर मीठा-मीठा बोलें। इसलिए लड्डू देते वक्त हम कहते हैं- 'तिळ गुळ घ्या आणि गोड गोड बोला' यानी 'तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो।' और तुम कितना मीठा बोल रहे हो, यह तुम स्वयं निर्णय करो। अतः मकर संक्रांति के सच्चेभाव को आत्मसात करते हुए पहले मुझे नहीं एक-दूसरे को तिल के लड्डू खिलाओ। गुरु की बात सुनकर शिष्यों ने उनके कहे का अनुसरण किया और एक-दूसरे को सच्चे हृदय से लड्डू खिलाने के बाद गले लगा लिया।

क्या बात है! कितना अनोखा अंदाज था गुरु का अपने शिष्यों को सिखाने का। वे न केवल अपने शिष्यों को सिखा गए बल्कि आज भी हम जैसे लोगों को सिखा रहे हैं। तो आज मकर संक्रांति पर आपसे भी एक आग्रह है कि आज जब आप काम पर जाएँ तो तिल के लड्डू साथ ले जाएँ और सभी स्नेहीजनों के साथ ही उस सहकर्मी को अवश्य खिलाएँ जिसके साथ आजकल आपकी पटरी नहीं बैठ रही है।

हाँ, शर्त यह है कि भाव भी शुद्ध होना चाहिए। लड्डू खिलाने के साथ ही आज से उससे मीठी-मीठी बातें भी करना शुरू कर दें। कुछ समय बाद निश्चित ही आपकोचमत्कारिक परिणाम मिलने लगेंगे और आपके दफ्तर की हवा भी बदलेगी। लेकिन याद रहे कि आप अपनी इस सफलता पर फूल मत जाना। वरना वही होगा जो पतंग और गुब्बारे के साथ होता है। यही है आज का गुरुमंत्र।

अब बस! मुझे भी तिल के लड्डू लेकर दफ्तर जाना है भाई और किसी को खिलाना भी है।

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