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माँ, मुझे भी जीना है ...?

मुझे दो तुम जीने का अधिकार

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हमें फॉलो करें बालिका

गायत्री शर्मा

NDND
काश गर्भस्थ शिशु बोल सकता, यदि वह बोलता तो शायद वह अपने शरीर को चीरते औजारों को रोक सकता और कहता 'माँ, मुझे भी जीना है।' लेकिन शायद उस वक्त भी उसकी आवाज को वो निर्दयी माँ-बाप नहीं सुन पाते, जो रजामंदी से उसकी हत्या को अंजाम दे रहे हैं। मेरा यह प्रश्न उन सभी लोगों से है, जो कभी न कभी कन्या भ्रूण हत्या के जिम्मेदार रहे हैं।

बालिका परिवार के आँगन का वो नन्हा सा फूल है, जो उलाहना के थपेड़ों से बिखरता है, त्याग की रासायनिक खाद से फलता-फूलता है फिर भी दुःख रूपी पतझड़ में अपने बूते पर खड़ा रहता है। बालिका, जिसके जन्म से ही उसके जीवन के जंग की शुरुआत हो जाती है। नन्ही उम्र में ही उसे बेड़ियाँ पहनकर चलने की आदत-सी डाल दी जाती है। येन केन प्रकारेण उसे बार-बार याद दिलाया जाता है कि वह एक औरत है, उसे सपने देखने की इजाजत नहीं है। कैद ही उसका जीवन है।

हमें यह सोचना चाहिए कि विकास के सोपानों पर चढ़ने के बावजूद भी आखिर क्यों आज इस देश की बालिका भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज मृत्यु के रूप में समाज में अपने औरत होने का दंश झेल रही है?

  बालिका परिवार के आँगन का वो नन्हा सा फूल है, जो उलाहना के थपेड़ों से बिखरता है, त्याग की रासायनिक खाद से फलता-फूलता है फिर भी दुख रूपी पतझड़ में अपने बूते पर खड़ा रहता है। बालिका, जिसके जन्म से ही उसके जीवन के जंग की शुरुआत हो जाती है।      
लोगों के सामने तो हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं कि बालिका भी देश का भविष्य है लेकिन जब हम अपने गिरेबान में झाँकते हैं तब महसूस होता है कि हम भी कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसकी हत्या के भागी रहे हैं। यही कारण है कि आज देश में घरेलू हिंसा व भ्रूण हत्या संबंधी कानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई।

अशिक्षित ही नहीं बल्कि ऊँचे ओहदे वाले शिक्षित परिवारों में भी गर्भ में बालिका भ्रूण का पता चलने पर अबार्शन के रूप में एक जीवित बालिका को गर्भ में ही कुचलकर उसके अस्तित्व को समाप्त किया जा रहा है। हालाँकि भ्रूण का लिंग परीक्षण करना कानूनी अपराध परंतु फिर भी नोटों व पहचान के जोर पर कई चिकित्सकों के यहाँ चोरी-छिपे लिंग परीक्षण का अपराध किया जा रहा है।

यदि हम अकेले म.प्र. की बात करें तो यहाँ प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों का अनुपात निरंतर घटता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर हमारी सरकार दलील देती है कि अब गाँव-गाँव में शत-प्रतिशत शिक्षा पहुँच चुकी है व लोगों में जागरूकता आई है। मेरा उनसे प्रश्न है कि यदि बालिका शिक्षा का लक्ष्य पूरा हुआ है तो फिर म.प्र. में वर्ष 1991 में प्रति हजार लड़कों पर 952 बालिकाएँ थीं, वो वर्ष 2001 में घटकर 933 कैसे रह गईं? भिंड और मुरैना जिले में तो यह स्थिति दूसरे जिलों की तुलना में और भी अधिक भयावह है।

आज कई जातियों में ये स्थितियाँ बन रही हैं कि वहाँ लड़के ज्यादा और लड़कियाँ कम हैं इसलिए मजबूरन उन्हें दूसरी जाति में अपने लड़के का रिश्ता तय करना पड़ रहा है। यदि आज यह स्थिति है तो कल क्या होगा, यह तो सर्वविदित है। यदि हम अब भी नहीं जागे तो शायद बहुत देर हो जाएगी और प्रकृति के किसी सुंदर विलुप्त प्राणी की तरह बेटियों की प्रजाति भी विलुप्ति के कगार पर पहुँच जाएगी।

बेटियाँ भी घर का चिराग हैं। वे भी एक इनसान हैं, जननी हैं, जो हमारे अस्तित्व का प्रमाण है। इसकी रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है इसलिए आज ही संकल्प लें और कन्या भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाकर नन्ही बेटियों को भी जीने का अधिकार दें।

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