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रमेशचंद्र शर्मा
मुझे अक्सर एक मित्र की बात याद आती है। उसका कहना है, "जिस दिन बच्चे शरारत नहीं करे, उसे डॉक्टर को दिखाओ कि कहीं बच्चा बीमार तो नहीं है।" दरअसल बच्चे को उसकी हर शरारत पर डाँटते-मारते वक्त माता-पिता प्रायः भूल जाते हैं कि वे भी कभी शरारती बच्चे थे।
* यह बात सही है कि बच्चों को लाड़-प्यार देने की एक सीमा होती है। एक उम्र के बाद बच्चों को सही-गलत की जानकारी देना चाहिए। उन पर उचित नियंत्रण और अनुशासन भी जरूरी है। उनमें संस्कार, सभ्यता और मर्यादा भी होना जरूरी है।
* मगर इसके लिए जरूरी नहीं कि वे पिछली पीढ़ी का अनुकरण ही करें। वे लीक पर ही चलें। परंपराओं का पालन करें। वे रूढ़ियों को तोड़े ही नहीं। नई जमीन नहीं तलाशें। फ्रेम में ही स्वयं को ढालें।
यहाँ मुझे परसाईजी का व्यंग्य "श्रवण कुमार के कंधे" याद आता है। जिसमें उन्होंने कावड़ को रूढ़ियों और रूढ़िवादियों को अंधे निरूपित किया। जिनकी नजर में आज्ञाकारी पुत्र वही होते हैं, जो रूढ़ियों की कावड़ों को ढोते हैं।
* कुल जमा यह कि नासमझ मासूम बच्चों के साथ कितना अन्याय है कि हम उनके कच्चे मन में अच्छे बच्चे और गंदे बच्चे का भेद बीज बो देते हैं। अच्छा बच्चा बनाने के तथाकथित निश्चय के चलते हम न केवल मासूम बचपन छीनते हैं। बल्कि उसकी वयोचित चंचलता और शरारत में गंदगी देखकर उन्हें गंदा बच्चा तक घोषित कर देते हैं बच्चे तो ईश्वर की अनमोल कृति हैं, फिर भगवान के इस रूप में कैसे अच्छा बच्चा और कैसा गंदा बच्चा?