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रमेशचंद्र शर्मा
बच्चे मासूम होते हैं, जो नहीं जानते हैं कि अच्छा बच्चा क्या होता है और गंदा बच्चा क्या होता है। बचपन भेद नहीं जानता है, मगर माता-पिता हैं, जो भेद जानते हैं। मासूम दिलो-दिमाग में भेद भरते हैं और अपने बच्चे को जब अच्छा बेटा, राजा बेटा की फ्रेम में अनफिट होते देखते हैं, तो उसके सामने- "बिगड़ रहा है", "बिगड़कर धूल हो गया है", इतनी बार दोहराते हैं कि बच्चे भी खुद को बिगड़ा हुआ मानकर बिगड़ने की राह पर चल देता है।
फिर कई बार जब बच्चा गंदा बच्चा, बिगड़ा बच्चा घोषित हो जाता है, तो फिर गली, मोहल्ला, कॉलोनी, सोसाइटी और अंततः कानून की नजर में भी यही बच्चा बदमाश, शातिर बदमाश और जघन्य अपराधी तक बन सकता है।
* स्कूल परिसरों, खेल के मैदानों और बगीचों में खेलते हुए मासूम बच्चों की मुस्कानों को गौर से देखिए और इनमें तलाश कीजिए कोई भावी अपराधी। एक भी बच्चे में आपको अपराधी नहीं मिलेगा। उनके जीवन की भावी परिस्थितियाँ उन्हें अपराधी बना देती हैं। उन्हें मिलने वाली उपेक्षाएँ, प्रताड़नाएँ उन्हें अपराधी बना देती हैं।
* दरअसल किशोर आयु तक का कोई बच्चा गंदा बच्चा नहीं होता है। फिर चाहे वह किसी पॉश कॉलोनी में रहने वाला बच्चा हो या फिर किसी झोपड़पट्टी में पलने वाला बच्चा हो। मगर अभिभावकों की मानसिकता मासूम बच्चों में अच्छा बच्चा और गंदा बच्चा तय कर देती है।
* चंचल और शरारती बच्चे दरअसल गंदे बच्चे की निशानी नहीं होते हैं। चंचलता, जिद और शरारत तो बचपन की स्वाभाविकता होती है। हमें भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप की चंचलता भाती है। उनकी माखन चोरी सुहाती है और चंद्र खिलौना लेने की जिद मोहित करती है। मगर यही बात किसी मासूम में हो तो उसे गंदा बच्चा घोषित कर दिया जाता है।