-न्यूयॉर्क डायरी : सुषम बेदी
मुझे याद आता है आज से लगभग 35 साल पहले। दिवाली पर घर की बहुत याद आती थी। दिवाली के साथ जुड़े थे सारे सगे-संबंधी, दीये की कतारों से सजी घरों की बिन्नियां और खिड़कियां, मिठाइयों से तनातन भरी रंग-बिरंगी हलवाइयों की दुकानें। दिवाली के बहुत दिन पहले से ही तैयारियां शुरू हो जातीं। घर में पुताई, बाजार से ढेर सारा पूजा का सामान, चीनी के खिलौने, मिट्टी की रंग-बिरंगी हट्टी, लक्ष्मी और गणेश।
यहां वह सब कुछ भी नहीं था। दिवाली की रात और रातों की तरह ही अंधेरी-सी लगती। यूं तो न्यूयॉर्क सारी रात यूं ही जगमगाता रहता है, पर ऐसा नहीं लगता था कि यह सारी चमक दिवाली के लिए है। अपने पहले उपन्यास 'हवन' में मैंने अपने पात्रों के संदर्भ में यहां की दिवाली का जिक्र भी किया है। ज्यादातर लोग घरों में ही पूजा करके, पकवान बनाकर और अगर कोई सगा-संबंधी शहर में रहता हुआ तो आपस में मिल-जुलकर दिवाली मना लेते थे।
इन पिछले 30 सालों में इस सारे इलाके की कायापलट हो गई है। कहां तो शहरभर में एकाध मिठाई की दुकान होती थी, अब बाजार के बाजार बन गए हैं। खासकर न्यूयॉर्क से सटे राज्य न्यूजर्सी में भारतीय आवासियों की आबादी काफी बढ़ गई है और उतनी ही तेजी से यहां भारतीय ग्रॉसरी और कपड़ों, मिठाइयों की दुकानों की तादाद बढ़ी है। तो साथ ही दिवाली का जोर भी।
यूं यह सच है क्रिसमस की तरह रौनक पूरे शहर में तो नहीं फैलती, पर आप जैकसन हाइट्स या एडिसन चले जाएं तो यह महसूस हो जाता है कि दिवाली आ गई है। उसी के उपलक्ष्य में डांडिया रास के भी सप्ताहांत मनाए जाते हैं।
और तो और, अब रावण को भी दशहरे पर जलाया जाने लगा है। न्यूयॉर्क में कई सालों से साउथ सीपोर्ट पर दिवाली मेला लगता है, जहां खूब रौनक होती है और अब टाइम स्क्वेयर पर भी दिवाली की रौनक का दिन मनाया जाने लगा है। इसके इलावा यूनिवर्सिटी के भारतीय छात्र दिवाली की पार्टी करते हैं। यहां दीये जलाने या पटाखे चलाने का रिवाज नहीं है, क्योंकि आग लगने का खतरा होता है, पर बिजली की रोशनी कोई भी कर सकता है।
पर मेरे लिए इस साल जो सबसे ज्यादा हैरान कर देने वाली दिवाली थी, वह थी 'एशिया सोसाइटी' की। यह एक पूरे परिवार के साथ मनाया जाने वाला जश्न था। बड़ी बात यह थी कि यह उत्सव मूलत: बच्चों को दिवाली और भारतीय संस्कृति से परिचित कराने वाला था। बच्चों ने दीये बनाए, रोली बनाई, छाया पुतलियां बनाईं और बच्चियों में बहुत लोकप्रिय रहा हाथों में मेहंदी लगवाना।
मेरे हिसाब से यह अलग तरह से मनाना था दिवाली का। हमने कभी दिवाली पर मेहंदी नहीं लगाई थी, पर भारत में अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग रिवाज भी हैं। अमेरिका में सबका समग्र ही मनाया जा सकता है चूंकि यहां भारत एक है, अलग-अलग प्रांत नहीं, सो सब रिवाजों का एकसार-सा दिखाई दे जाता है।
पिछले सप्ताहांत पर जब एशिया सोसाइटी में दिवाली मनाई गई तो बहुत से परिवार बच्चों समेत आए हुए थे। दादा-दादी या नाना-नानी भी अपने पोतों-पोतियों या नातियों के साथ आए हुए थे। बच्चों को हिन्दुस्तानी संगीत सिखाया गया, कथक नाच सिखाया गया, भारतीय कार्टून फिल्में दिखाई गईं। इसके बाद बच्चों ने ताजे रंग-बिरंगे फूलों, दाल या रंगों से रंगोली बनाई और दीये आदि बनाने के दूसरे कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। इस तरह दिवाली मनाने के बहाने बच्चों को भारतीय संस्कृति के कई नमूनों से परिचित कराया गया।
मुझे लगता है कि हमारी भारतीयों की यह नई पीढ़ी दिवाली पर चाहे दीये न जलाए या पटाखे न जलाए, पर भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को जरूर जिलाए रखेगी।