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ये शब्द मुंह से मत निकालिए

स्मृतिअक्स बक्सा-3

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-अशोक चक्रध
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सन उन्नीस सौ सतासी, जून महीने का अंत।
मॉस्को पहुंच चुके थे। मेरा एक अनुजवत कवि-मित्र अनिल जनविजय मॉस्को में है और वहां रेडियो पर काम करता है, ये जानकारी मैं भारत से लेकर आया था। मैंने फोन मिलाया और सौभाग्य देखिए कि पहली बार में ही उनसे बात हो गई। वे मुझसे मिलने के लिए मुझसे ज़्यादा उतावले थे। जहां तक याद पड़ता है, मॉस्को पहुंचने के छ:-सात घंटे बाद ही अनिल मुझे मिल गए। एक कमी जो मुझे अखर रही थी, दुभाषिए की, उसका भी निदान हो गया, क्योंकि अनिल बहुत अच्छी रूसी जानते थे। हिन्दी के कवि तो वे थे ही।

अनिल जनविजय ने खासी मदद की। अगले दिन जब वे मुझे रेडियो स्टेशन ले जाने लगे तो मेरी दुभाषिया तान्या उनसे रूसी में तरह-तरह के सवाल पूछने लगी- कहां जाना है, क्यों जाना है, किसकी अनुमति है, वगैरा-वगैरा। होटल से बाहर निकलने के बाद तान्या एक पल के लिए भी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थी। साए की तरह साथ लगी रहती थी। मॉस्को रेडियो के लिए लिफ्ट में जाते हुए अनिल ने तान्या से रूसी में पूछा-‘तुम्हें हिन्दी आती है?’ ‘नियत’ कहकर उसने मना कर दिया। अनिल अब निश्चिंत भाव से उसकी आलोचना करने लगे- ‘ये जितनी भी दुभाषिया लड़कियां हैं, इनमें अधिकांश गुप्तचर विभाग की हैं। और ये तो एकदम निखद्द और कामचोर लग रही है। काया देखिए इसकी, खा-खा के कैसी मोटी हो रही है।‘ मैंने कहा- ‘स्वस्थ सोवियत नारी है, क्या हुआ जो भारी है? लेकिन क्या ये केजीबी की होगी?’ अनिल ने एकदम आँख निकालते हुए कहा- ‘ये शब्द अपने मुंह से मत निकालिए। गुप्तचर बोलिए गुप्तचर।‘ मुझसे ग़लती हो चुकी थी। बात संभालते हुए मैंने कहा-‘मैं तो कोमल जीबी सिंह की बात कर रहा था। वो है कि नहीं केजीबी?’ अनिल मुस्कुराए, पर चेतावनी में फिर से मुझे आंखें दिखाईं। तान्या कुछ समझने की कोशिश करती हुई सी दिख रही थी। मैंने तान्या से कहा- ‘डू यू नो कोमल जी बी सिंह? वी कॉल हर के जी बी।‘ इस पर तान्या ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। अनिल ने अपनी बात फिर से दोहराई- ‘ये शब्द मुंह से मत निकालिए अशोक जी। यहां लिफ्ट के भी कान होते हैं। ये गोरी भैंस फंसवा देगी आपको।‘ लिफ्ट से बाहर निकले तो तान्या ने अनिल से प्रवाहपूर्ण शुद्ध हिन्दी में कहा- ‘अपने विषय में आपके विचारों से मेरा सहमत होना आवश्यक नहीं है महाशय!’

कम्बख़्त हिन्दी जानती थी और नाटक कर रही थी कि हिन्दी नहीं जानती। हम दोनों पानी-पानी हो गए, लेकिन लिफ्ट-संवाद का फायदा ये हुआ कि उसके बाद मैं तान्या से हिन्दी में बात करने लगा और वह भी हमारे स्वभाव से परिचित होने के बाद सहज हो गई। अनिल ने उसे अच्छी हिन्दी पुस्तकें देने का वादा किया। वह हमारी मित्र बन गई। भूल गई कि वो इंटरप्रेटर है या केजीबी की एजेंट है या मेरे साथ फ़कत कुछ समय के लिए ही है। जब तक साथ रही उसने भरपूर मदद की। मज़बूत हुए भारत-रूस के धागे। अब सुनिए आगे।

मस्क्वा नदी के किनारे मस्क्वा होटल। उसे होटल कहें या महाहोटल? हज़ारों कमरे, सैकड़ों गलियारे और सब के सब एक जैसे। कमरे का नम्बर याद न हो तो भूल जाओ, भटक जाओ। अच्छी बात यह थी कि भूतल के केन्द्रीय प्रांगण में ‘भारत महोत्सव स्वागत कक्ष’ का इंतज़ाम था चोखा, वहां था हर प्रतिभागी का लेखा-जोखा। कोई भूल भटक जाता था तो वहीं आता था। कुछ तफरी, कुछ अफरा-तफरी।

कांच के बड़े-बड़े दरवाज़े। चौड़ी-चौड़ी, ऊंची-ऊंची खिड़कियां। मैं और विनोद दुआ तेरहवीं मंजिल पर एक ही कमरे में थे, जिसका नम्बर याद नहीं। इतना याद है कि वहां विनोद दुआ को भी शुरुआत में कमरे का नंबर याद नहीं था। यह भी याद है कि कमरा गर्मानुकूलित था। वहां से पूरा लाल चौक नज़र आता था। कैथेड्रल की रंग-बिरंगी इमारत तो बेहद क़रीब थी। लाल नीले पीले लहरदार गुम्बद लुभावने दिखाई देते थे। क्रांति के बाद कई बार इस चर्च को ध्वस्त करने की योजनाएं बनी थीं। स्टालिन ने तो आदेश ही दे दिये थे। भला हो राजकीय वास्तुकारों का जिन्होंने इस इमारत की खूबियां गिना कर इसे गिरने से बचा लिया। चर्च के प्रांगण में कामरेड्स की परेड्स तो होने लगीं लेकिन खिलौनानुमा इमारत को तोड़ने का साहस किसी में नहीं हुआ। आज भी यह बहुरंगी चर्च रूस की पहचान है।

होटल के बाहरी गलियारे में घूमे तो मास्को की बहुत सारी इमारतें नज़र आईं। सीमेंटित तटों में बंधकर बहने वाली मस्क्वा नदी भी। लेनिन की समाधि तक पैदल का रास्ता था। प्रकृति की लीला ने पहले दिन ही हैरान कर दिया था। चौबीस घंटे में बीस घंटे दिन और सिर्फ चार घंटे रात। हमारे समय के अनुसार रात के बारह बजे भी धूप खिली रहती थी। मैंने अपनी दुभाषिया सहयोगी तान्या से कहा- ‘तभी यहां के लोग ज़्यादा काम करते हैं।' वह बोली- ‘मॉस्को में ऐसा समय भी आता है जब दिन मात्र चार घंटे का होता है अशोक! हम उतना ही कर्म करते हैं जितना दिया जाता है। श्रम से और मन से करते हैं। अभी आपकी सूचना के लिए बता दूं कि वाहनचालक उचित समय, पांच बजे चला जाएगा।'

मैंने कहा- ‘उचित समय या निर्धारित समय?’
‘संशोधन के लिए धन्यवाद!’ -उसने कहा।
‘कोई बात नहीं! आज मुझे आवश्यकता नहीं है।’
भले ही मेरा कहीं जाने का मन था, पर हम भारतीय हर स्थिति में स्वयं को ‘उचित’ बना लेते हैं। या तो काम नहीं करते हैं या ‘निर्धारित’ से कहीं अधिक करते हैं। लंबी यात्रा के बाद उस समय मेरा आराम करना ही ‘उचित’ था।

कमरे में पहुंचा तो पाया कि विनोद दुआ वहां नहीं हैं। वे मेरे साथ उसी कमरे में ठहरे हुए थे। सोचा उचित समय तक आ ही जाएंगे। मेरा मन किया तो मस्क्वा नदी तक टहल आऊंगा। पास ही तो है।

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