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कहां जाऊं अमेरिका या सोवियत संघ

-अशोक चक्रधर : स्मृतिअक्स-बक्सा-1

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प्रसिद्ध कवि, व्यंग्यकार और लेखक अशोक चक्रधर को वेबदुनिया के पाठक 'स्मृतिअक्स-बक्सा' कॉलम के माध्यम से पढ़ सकेंगे। प्रस्तुत है इस कॉलम की पहली रचना...


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भारतीय मध्य वर्ग ने रंगीन टीवी के साथ वीसीआर भी ख़रीदना शुरू कर दिया था, बात उस ज़माने की है। जगह-जगह वीडियो लाइब्रेरी खुल गई थीं। लोग किराए पर फिल्में लाते थे और घर पर पैर फैलाकर ठाठ से देखा करते थे। सिनेमाघर धीरे-धीरे बंद होने लगे थे और लगने लगा था कि अब ये फिर से शायद कभी खुल भी नहीं पाएंगे। वीसीआर ने दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले मनचाहे कार्यक्रमों को रिकॉर्ड करने की चमत्कारी सुविधा प्रदान कर दी थी। रिकॉर्ड करने पर कोई अपराधबोध भी नहीं होता था कि हम पायरेसी या कॉपीराइट उल्लंघन जैसा कोई ग़लत काम कर रहे हैं। पंद्रह-बीस हज़ार रुपए देकर जब वीसीआर ख़रीदा है तो टेप भी नहीं करेंगे क्या? बोलिए!!!

चौरासी में मैंने दूरदर्शन के एक हास्य कवि सम्मेलन का संचालन किया था। उस कवि सम्मेलन में ‘बियर नहीं पिऊंगा’ शीर्षक की एक कविता सुनाई थी। संयोग से कविता जम गई और संचालन भी। उस कार्यक्रम के ख़ूब कैसेट्स बने, लोगों ने बारम्बार देखा। वीडियो लाइब्रेरी धड़ल्ले से कैसेट्स किराए पर देती थीं। सब कुछ खुले आम था पर दूरदर्शन ने किसी पर कोई मुकदमा नहीं किया। कॉपीराइट क्या होता है, अपने देश में अघोषित राइट टू कॉपी था।

बहरहाल..., वैसे तो मैं 1967 से आकाशवाणी पर और 1973 से दूरदर्शन पर आने लगा था, लेकिन चौरासी के उस दूरदर्शन कवि सम्मेलन ने मुझे रातोंरात स्टार बना दिया। मैं देश भर का लाड़ला कवि बन गया। कुछ कविता-प्रेमियों ने कैसेट्स विदेशों में स्थित अपने मित्रों रिश्तेदारों को भेजे। सो मैं बिना पासपोर्ट के दृश्य-श्रव्य रूप में हिन्दी कविता-प्रेमी प्रवासी भारतीयों तक पहुंच गया। काकाजी भी अमेरिका के आयोजकों को मेरा नाम-पता दे आए थे, परिणामत: मेरे पास अमेरिका से न्योते आने लगे। सबसे पहले किसने बुलाया यह तो मुझे याद नहीं है पर इतना याद है कि 1986 में टेलीफोन पर एक अनौपचारिक निमंत्रण पाने के बाद मैंने अपना पासपोर्ट बनवाया।

लेकिन दोस्तो! उत्कट अभिलाषा और उत्साह के बावजूद मैं अमेरिका जा नहीं पाया क्योंकि दूरदर्शन की एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम-योजना में शरीक था और वह कार्यक्रम था ‘अपना उत्सव’। ‘अपना उत्सव’ स्व. राजीव गांधी की सांस्कृतिक समझ से पैदा हुआ एक सौंधा-सा सांस्कृतिक संकल्प था जो प्रिंट-मीडिया की वजह से औंधा हो गया। ये वो दिन थे जब राजीव गांधी अपनी लोकप्रियता और छवि की रक्षा करने के लिए जूझ रहे थे। दूरदर्शन पर उनको बहुत अधिक दिखाना उनके विरुद्ध जा रहा था। अख़बारों ने ‘अपना उत्सव’ की धज्जियां उड़ा दीं। आरोप यह लगाया कि जिस समय देश बेकारी भुखमरी और महंगाई से जूझ रहा है, देश के आक़ाओं को नाच-गाना सूझ रहा है। सरकारी ढोल बजाया जा रहा है। पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। दूरदर्शन ने ‘अपना उत्सव’ के कार्यक्रमों को निष्ठापूर्वक कवर किया। मैं उसमें मुख्य एंकर के रूप में अपनी पूरी समझदारी के साथ लगा रहा। लोगों ने ‘अपना उत्सव’ के कार्यक्रमों को पसंद किया पर प्रेस ख़फ़ा रही। मेरे कुछ श्रोता भी मुझसे नाराज़ हो गए। प्रशंसा के अनेक पत्रों के बीच कहीं-कहीं कटाक्ष का स्वर भी होता था- ‘भ्रष्टाचार के ख़िलाफ कविताएं लिखने वाले हे अशोक चक्रधर, तुम सत्ता के चाटुकारों की कतार में कैसे खड़े हो गए?’ ऐसी कटूक्तियों से भरे पत्र पढ़कर दिल छलनी हो जाता था और मन में ख़्याल आता था कि अच्छा होता अमेरिका ही चले गए होते।

अमेरिका से अगला न्योता मिला 1987 में, पर यहां मेरे सामने फिर एक विकल्प था। दूरदर्शन की तरफ से सोवियत संघ में भारत महोत्सव का आखों देखा हाल सुनाने के लिए जो चार लोग चुने गए थे, मैं भी उनमें से एक था। अंग्रेज़ी में हाल सुनाने के लिए राजीव मल्होत्रा और कोमल जीबी सिंह और हिन्दी के लिए विनोद दुआ और मैं।

हुआ यों कि ‘अपना उत्सव’ को दूरदर्शन द्वारा सफलतापूर्वक संपन्न किए जाने के बाद उन लोगों को एक पार्टी दी गई, जिन्होंने कार्यक्रमों की प्रस्तुति अथवा निर्माण में मेहनत की थी, जिनके श्रम से दूरदर्शन के आला अधिकारी प्रसन्न थे और बताया गया कि राजीव जी भी खुश थे। महानिदेशक भास्कर घोष शायद राजीव जी से अकेले शाबासी ले रहे थे, इसलिए पार्टी में नहीं आ पाए, लेकिन अतिरिक्त महानिदेशक शिव शर्मा और एएस गिरेवाल इस भोज में मुख्य मेज़बान की भूमिका निभा रहे थे। शर्मा जी ने मेरी प्रशंसा करते हुए कहा- ‘मैंने ‘अपना उत्सव’ की काफी कवरेज देखी अशोक! तुमने एक प्रोफेशनल की तरह अच्छा काम किया। सोवियत संघ में ‘भारत महोत्सव’ होने जा रहा है। मैं चाहता हूं कि तुम उसमें चलो। बोलो चलोगे?’ मैं उनसे कहने ही वाला था कि मैं तो अमेरिका जा रहा हूं, पर पता नहीं किस आंतरिक शक्ति ने मुझे रोक लिया। मन में अंतर्द्वंद्व चल रहा था। कवि सम्मेलन का क्या है? वही पुरानी कविताएं सुनानी होंगी, तालियां बजवानी होंगी, लेकिन लाइव टेलीकास्ट का ये चुनौती भरा काम दिव्य होगा। मेरे लिए यह काम नया तो नहीं, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहला होगा। मैंने शर्मा जी से कहा- ‘ज़रूर चलना चाहूंगा सर! मुझे बेहद खुशी होगी।‘

शर्मा जी दूसरे लोगों की ओर मुखातिब हो गए। मैं फिल्म संपादक सरीन साहब की ओर मुड़ा। सरीन साहब को अपना अंतर्द्वन्द्व बताया। उन्होंने राय दी- ‘अगर आपके पास पक्का इनविटेशन है तो अमेरिका जाइए, पैसे कमाइए, दूरदर्शन आपको क्या देगा?‘ मन फिर डांवाडोल होने लगा। अमेरिका मेरे अंदर पुरज़ोर अंगड़ाई लेने लगा। अब मैं सोचने के लिए थोड़ा समय चाहता था। सरीन साहब ने अचानक एक सवाल दागा- ‘यूनिवर्सिटी से आपको आराम से छुट्टी मिल जाती हैं?’ अरे, ये बात तो अभी तक सोची ही नहीं थी कि जामिया से अनुमति लेनी पड़ेगी। इस प्रश्न ने सोवियत संघ का पलड़ा भारी कर दिया। पार्टी से विदाई के समय मैंने शर्मा जी से कहा- ‘आप तो जानते हैं कि मैं नौकरी करता हूं, मुझे अपने वाइस चांसलर से अनुमति लेनी पड़ेगी।‘ उन्होंने कहा- ‘उसकी फिकर मत करो। मैं पत्र लिख दूंगा।‘

एक सप्ताह के अंदर चिट्ठी वाइस चांसलर के यहां पहुंच गई। प्रोफ़ेसर अशरफ़ अली ने मुझे बुलाया- ‘मुबारक हो अशोक! ये जामिया के लिए बड़े फ़ख़्र की बात है कि दूरदर्शन आपको मास्को भेजना चाहता है।‘ विदेश यात्रा सचमुच गौरव की बात हुआ करती थी। वे सचमुच ख़ुश थे। चिट्ठी दिखाते हुए कहने लगे-‘हालांकि वो लोग आपको सिर्फ सात जुलाई तक ही चाहते हैं, पर मैं कहूंगा कि आप और ज़्यादा रह कर आइए। लेनिनग्राद जाइए, साइबेरिया तक घूमकर आइए। हमारी तरफ से आपको पूरी आज़ादी है, लेकिन अगस्त में नया सैशन शुरू हो, उससे पहले आ जाइएगा।
मैंने कृतज्ञता में कहा- ‘जी ज़रूर, बहुत-बहुत शुक्रिया।‘

अमेरिका जाना कब हुआ, ये प्रसंग अभी आगे सरका देता हूं। फिलहाल मैं आपके आगे सोवियत संघ की स्मृतिअक्स-बक्से से निकाले हुए कुछ तथ्य परोसना चाहूंगा। अगली बार।

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