पीवीआर (अनुपम), साकेत (दिल्ली) में पीपली लाइव के प्रीमियर शो के बाद बाहर निकलते हुए सूफी साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान प्रो. मुजीब रिज़वी के चेहरे पर जो शालीन गर्वबोध था, उसे हर पिता पाना चाहता है। 'पीपली लाइव' जैसी अर्थपूर्ण फिल्म की निर्देशक अनुषा रिजवी प्रो. मुजीब रिज़वी की बेटी हैं। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर सोद्देश्य फिल्मों के प्रतीक बनते जा रहे आमिर खान के प्रोडक्शन हाउस के लिए यह फिल्म बनाई है।
यूँ देखें तो इस फिल्म में कोई कथा नहीं है, बस एक घटना है कि भूमिहीन होने की स्थिति में जा रहा एक किसान 'नत्था' आत्महत्या करने की योजना बनाता है और इसकी खबर स्थानीय अखबार के संवाददाता राकेश को लगती है, जो इस पर एक लेख लिख देता है। फिर शुरू होता है मीडिया और सत्ता का खेल। यह फिल्म हास्य सृजित करते हुए पूरी व्यवस्था पर जिस निर्मम और पारदर्शी ढंग से व्यंग्य करती है, वह अविस्मरणीय है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का टीआरपी खेल हो या सरकारी योजनाओं का रहस्य-यह फिल्म सबको बेपर्दा करती है। नत्था की 'आत्महत्या योजना' लोकतंत्र की एक ट्रेजडी है, लेकिन मीडिया उसका तमाशा बना देती है। जिस राकेश नामक पत्रकार ने सर्वप्रथम नत्था की 'आत्महत्या योजना' की सूचना प्रकाशित की, अंत में गायब नत्था की खोज में वही जलकर मरता भी है। उसी के शरीर को लोग नत्था समझ लेते हैं। इसके बाद मीडिया, पुलिस और नेताओं के तंबू उखड़ जाते हैं। जैसे मेला खत्म हो गया हो। किसी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसके बाद नत्था के परिवार या इस तरह के करोड़ों भूमिहीन हो गए या हो रहे किसानों का क्या होगा! किसी को सनसनीखेज समाचार चाहिए तो किसी को कुर्सी। सब 'अपनी व्यवस्था' में इस कदर डूबे हैं कि दूसरों के बारे में सिर्फ यही सोचते हैं कि उनका इस्तेमाल कैसे कर लिया जाए। फिल्म में राकेश की यह पहचानहीन मृत्यु एक प्रतीक भी है।
याद दिलाते चलें की राकेश वही पत्रकार है जो होरी महतो नामक भूमिहीन किसान की मृत्यु से व्यथित होकर अंग्रेजी चैनल की एंकर से बहस करता है। पूछता है- क्या नत्था की मौत से सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी? उसका प्रश्न अनुत्तरित रहता है। उसे जो उत्तर मिलता है, वह व्यवसाय का तर्क है। नत्था की पहचान में विलीन होकर अपना प्राण त्यागने वाला राकेश मीडिया और सत्ता के समक्ष एक बड़ा प्रश्न छोड़कर जाता है।
इस फिल्म का सीधे-सीधे प्रेमचंद से कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन इसे देखते हुए किसी दर्शक को यदि वे याद आएँ तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कैसी विडंबना है कि लगभग अठहत्तर वर्ष पहले औपनिवेशिक शासन में किसानों की दीन-हीन स्थिति का चित्रण करते हुए प्रेमचंद 'गोदान' में होरी महतो की जिस त्रासद मृत्यु से अपने पाठकों का साक्षात्कार करा रहे थे, लगभग उसी तरह, उतनी ही मार्मिकता से अनुषा रिज़वी आजाद भारत में अपनी जमीन से बेदखल कर दिए गए किसान होरी महतो की मृत्यु को अपने दर्शकों की पुतलियों में उतारने की कोशिश करती हैं।
पूरी फिल्म में होरी के हिस्से तीन-चार मिनट ही आए हैं, लेकिन उसकी मृत्यु दर्शकों की स्मृति का एक बड़ा हिस्सा घेरती है। इस फिल्म में नत्था की पत्नी का नाम धनिया रखा गया है। बताने की जरूरत नहीं कि 'गोदान' में मुख्य पात्र होरी की पत्नी का नाम धनिया ही है। लेकिन समानता सिर्फ नाम की नहीं है। प्रेमचंद की धनिया में जो दृढ़ता और आक्रोश है, लगभग वही दृढ़ता और आक्रोश अनुषा रिज़वी की धनिया में भी है। फिल्म का वह दृश्य भुलाए नहीं भूल सकता जिसमें वह बर्तन माँज रही है और ठीक उसी समय टीवी पत्रकार द्वारा उससे नत्था की आत्महत्या के बारे में पूछा जाता है। भीतर-ही-भीतर उमड़-घुमड़ रही धनिया उसे झिड़क देती है।
बेहद साधारण दिखने वाला यह प्रसंग साधारण नहीं है। यहाँ यह भी बताना अनावश्यक नहीं है कि अनुषा की धनिया कामचोर पति और जेठ की धुनाई भी करती है, जिसके लिए सास उसे गाली देते हुए 'मर्दमार' कहती है। निश्चय ही यह फिल्म धनिया के दोहरे संघर्ष के लिए भी याद की जाएगी।
भारत के संदर्भ में देखें तो यह दुःखद है कि स्वतंत्रता के लगभग अड़सठ वर्ष बीत जाने के बाद भी किसानों की मूलभूत स्थिति वही है, जो गुलाम भारत में थी। अब उन्हें लगान तो नहीं देना पड़ता, लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण उनकी हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद उनके हिस्से की धरती अनुर्वर ही है। किसी पारलौकिक विधाता ने उनकी किस्मत को ऊसर नहीं बनाया है। यह विशेष कृपा सरकारी नीतियों की है, जिसमें किसान सबसे आखिर में आता हैं सरकारी फाइलों में गाँव खुशहाल है, चहचहा रहा है लेकिन असल में वहाँ लोगों का जीना दूभर हो रहा है। अधिकांश परिवारों को दो वक्त का पूरा भोजन नहीं मिलता।
प्रेमचंद गुलाम भारत में यह सच दिखा रहे थे और अनुषा रिज़वी ने आजाद भारत में सबसे लोकप्रिय माध्यम के द्वारा यही सच दिखाया है। प्रेमचंद के उपन्यास 'गबन' का सब्जी बेचने वाला पात्र देवीदीन पूछता है- 'साहब, सच बताओ, जब तुम सुराज का नाम लेते हो, तो उसका कौन-सा रूप तुम्हारी आँखों के सामने आता है? तुम भी बड़ी-बड़ी तलब लोगे, तुम भी अंग्रेजों की तरह बँगलों में रहोगे, पहाड़ों में हवा खाओगे, अंग्रेजी ठाठ बनाए घूमोगे, इस सुराज से देश का क्या कल्याण होगा? तुम्हारे और तुम्हारे भाई-बंदों की जिंदगी भले आराम से और ठाठ से गुजरे पर देश का कोई भला न होगा। ...तुम दिन में पाँच बेर खाना चाहते हो और वह भी बढ़िया माल, गरीब किसान को एक जून सूखा चबेना भी नहीं मिलता। उसी का रक्त चूसकर सरकार तुम्हें हुद्दे देती है। तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है? अभी तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-विलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हरा राज हो जाएगा, तब तो तुम गरीबों को पीसकर पी जाओगे।' कहने की आवश्यकता नहीं कि अपने दोनों पुत्रों को स्वाधीनता की बलिवेदी पर भेंट चढ़ा चुके देवीदीन के माध्यम से प्रेमचंद जो आशंका व्यक्त कर रहे थे, वह पूर्णतः सच साबित हुई। आज इन्हीं सवालों को अनुषा अपने ढंग से उठा रही हैं। वे दिखा रही हैं कि मनुष्यता जैसे भाव को कालापानी की सजा दे दी गई है।
जो लोग अपने समाज से तनिक भी संलग्नता रखते हैं, उनके लिए यह फिल्म बेहद मानीखेज़ है। अपने कला-रूप में तो यह अद्वितीय है ही। इस फिल्म को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है, जैसे अनुषा रिज़वी की आँखों से प्रेमचंद झाँक रहे हैं।