वो पत्रकार हैं, लेखक हैं, कहानीकार हैं, संपादक हैं, निबंधकार हैं, पिछले 47 सालों से वे पत्रकारिता कर रही हैं। जब वो लिखती हैं, तो लगता है जैसे शब्दों को उनके मायने मिल गए हैं। जब 21 साल की थीं, तो हिन्दी साप्ताहिक 'धर्मयुग' में उनकी पहली कहानी छपी थी। तब से शुरू हुआ वो सफर, आज भी अनवरत जारी है।
अपनी लगन और प्रतिभा के बाल पर आज वो सफलता की उस ऊंचाई पर हैं, जहां पहुंचने की हसरत हर एक शख्स के दिल में होती है। मृणाल पांडे एक पत्रकार, लेखक और भारतीय टेलीविजन की जानी-मानी हस्ती हैं। फिलहाल वे प्रसार भारती की अध्यक्ष हैं। इससे पहले वे भारत में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबारों में से एक हिन्दी दैनिक 'हिन्दुस्तान' की संपादक रह चुकी हैं। साथ ही, लोकसभा चैनल के साप्ताहिक साक्षात्कार कार्यक्रम 'बातों-बातों में' का संचालन भी वो करती रही हैं। हिन्दी की मशहूर उपन्यासकार शिवानी की बेटी मृणाल पांडे का जन्म टीकमगढ़, मध्यप्रदेश में हुआ। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल में पूरी की। उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए किया। और फिर अंग्रेजी एवं संस्कृत साहित्य, प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्व, शास्त्रीय संगीत तथा ललित कला की शिक्षा कारकारन (वॉशिंगटन डीसी) से पूरी की। वो कुछ वर्षों तक 'सेल्फ इम्प्लायड वूमेन कमीशन' की सदस्य रही है। अप्रैल 2008 में उन्हें पीटीआई (PTI) बोर्ड की सदस्य बनाया गया। आजादी के बाद हुए भारतीय परिवेश को मृणाल पांडे ने अपनी कहानियों, उपन्यासों और नाटकों में रेखांकित किया है। साल 1984-87 के बीच टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की लोकप्रिय पत्रिका 'वामा' का संपादन भी मृणाल पांडे ने किया। दूरदर्शन और स्टार न्यूज के लिए भी मृणाल पांडे ने काम किया। हमारे समय में देवी की देवी (2000), बेटी की बेटी (1993), जो कि राम हाथ ठहराया (1993), विषय नारी (1991), अपना खुद का गवाह (2001) आदि उनकी कई चर्चित किताबें हैं। इसके अलावा मृणाल पांडे की 'यानी कि एक बात थी', 'बचुली चौकीदारिन की कढ़ी', 'एक स्त्री का विदा गीत' और 'चार दिन की जवानी तेरी' आदि कई प्रसिद्ध कहानियां रही हैं। 'अपनी गवाही', 'हमका दियो परदेस', 'रास्तों पर भटकते हुए' जैसे उनके उपन्यासों ने समाज को एक नई दिशा देने का काम किया है। 'जहां औरतें गढ़ी जाती हैं' उनका चर्चित आलेख रहा है। पिछले 47 सालों में मृणाल पांडे ने बहुत कुछ हासिल किया। सफलता के बहुत से मुकाम पाए। कई उपलब्धियां भी दर्ज हुईं। कभी कोई समझौता नहीं किया, भले ही इस वजह से नौकरी ही क्यों न छोड़नी पड़ी हो। कोई गलत काम नहीं किया और न ही किसी को करने दिया। आजादी मिली तो बहुत सारे प्रयोग किए। कामयाबी भी मिली। अभी उस कामयाबी का हिसाब करने का वक्त उनकी जिंदगी में नहीं आया है, क्योंकि अभी तो बहुत सा सफर बाकी है।
(मीडिया विमर्श में अंकुर विजयवर्गीय)