स्वामी विवेकानंद
क्षमाशीलता, स्थिरता एवं आत्मसम्मान के प्रखर उद्घोषक
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डॉ. शोभा वैद्य
विश्व मानवता का बीजारोपण करने वाले स्वामी विवेकानंद के बारे में वर्षों पूर्व एक विदेशी पत्र ने टिप्पणी की थी कि धर्मों की संसद में सबसे महान व्यक्ति विवेकानंद हैं। इनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म प्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खतापूर्ण है।
निःसंदेह आधुनिक युग में स्वामीजी पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने पश्चिमी मंच बनाकर पश्चिम के समक्ष पूर्वीय वेदान्त के सर्वोच्च सत्य की घोषणा की। उनके प्रखर उद्घोषक रूप से पश्चिमी समाज इतना प्रभावित हुआ कि 11 सितंबर 1893 को उन्हें बोलने के लिए दिया गया केवल 5 मिनट का समय घंटों में परिवर्तित हो गया। पश्चिमी जनमानस मंत्रमुग्ध होकर घंटों उन्हें सुनता रहा।
परिवर्तन के पक्षधर स्वामीजी आज भी युवा पीढ़ी के प्रकाश-स्तम्भ हैं। उन्होंने आत्मा, स्व, बल आदि सकारात्मक प्रतीकों का खुलकर समर्थन किया है। साथ ही भारतीयता, धर्म आध्यात्मिकता आदि की सटीक व्याख्या कर उसके भ्रम का निवारण किया है। उनकी कथन, विचार-शैली एवं प्रतिपादन कौशल के कारण ही वे न केवल भारत में वरन विदेशों के गणमान्यजनों के अध्ययन एवं गहन चर्चा के विषय बन गए।
उनके पश्चिमी दौरे से वहाँ के समाज में भारत की समस्याओं के प्रति सहानुभूति और समझ के सिंह-द्वार खुल गए तथा देश में आत्म-गौरव और विकास के नए युग का सूत्रपात हुआ। लुंजपुंज, मृतप्रायः राष्ट्रीयता में कसावट आने को हुई और देश के स्वातंत्र्य संघर्ष की सच्ची आधारशिला जमी जिसका प्रभाव पूरे देश पर होना था।
स्वामीजी निश्चित ही भारतवर्ष को उसके एकाकीपन से बाहर लाए। उन्होंने भारत की नाव को जिसकी तली में अनेक छिद्र हो गए थे, सुधारा और अंतरराष्ट्रीय जीवनधारा में पुनः खैने के लिए प्रतिष्ठित किया।
स्वामीजी आत्मविश्वास के प्रबल पक्षधर हैं। कृष्ण एवं नचिकेता के त्याग, आदर्श से अभिभूत स्वामीजी का यह दृढ़ विश्वास था कि आत्मविश्वास का आदर्श ही हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है। वे मानते थे कि आत्मविश्वास का प्रचार और क्रियान्वयन, दुःख और अशुभ को कम करता है। उनके अनुसार सभी महान व्यक्तियों में आत्मविश्वास की सशक्त प्रेरणा-शक्ति जन्म से होती है। उन्होंने भी इसी ज्ञान के साथ जन्म लेकर स्वयं को स्थापित करने का प्रयास किया।
जीवन के प्रति सदा आशावादी दृष्टिकोण रखने वाले नरेंद्र यह मानते रहे कि मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाए, एक समय ऐसा अवश्य आता है जब वह उससे बेहद आर्त्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है और अपने में विश्वास करना सीखता है। परंतु इस विश्वास को शुरू से ही जान लेना बेहतर है। हम आत्मविश्वास सीखने के लिए इतने कटु अनुभव क्यों प्राप्त करें?
स्वामीजी की राय में भेद का बड़ा कारण आत्मविश्वास की उपस्थिति का अभाव है क्योंकि आत्मविश्वास ही वह शक्ति है जिसके द्वारा सब कुछ संभव होता है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार ईश्वरीय सत्ता में विश्वास न करना नास्तिकता है जबकि नए विचारों के अनुसार आत्मविश्वास में विश्वास न होना नास्तिकता है। इस विश्वास से स्वामीजी का आशय क्षुद्र मैं को लेकर नहीं है वरन इस विश्वास का अर्थ है सबके प्रति विश्वास अपने प्रति प्रेम से है। सब प्राणियों से प्रेम का संवेदनशील भाव ही संसार को अधिक अच्छा बना सकेगा, यह उनका विश्वास था।
सर्वश्रेष्ठ मनुष्य को बड़ी सहजता, सरलता से परिभाषित करते हुए वे कहते हैं, सर्वश्रेष्ठ मनुष्य वह है जो सचाई के साथ कह सके कि मैं अपने संबंध में सब कुछ जानता हूँ जबकि सचाई यही है कि मनुष्य स्वयं से अपरिचित रहकर दूसरों के बारे में ज्ञानी होने का प्रमाण जब-तब देता रहता है।
मनुष्य की दबी-छिपी ऊर्जा-शक्ति को झंझोड़ने के लिए वे पूछते हैं कि क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर कितनी ऊर्जा, कितनी शक्तियाँ, कितना बल अब भी छिपा पड़ा है? मनुष्य में निहित सारे ज्ञान का अनुसंधान अब तक कौनसा वैज्ञानिक कर पाया है? लाखों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी पर है पर अब तक उसका पारमाणविक अंश ही प्रकाशित प्रकट हुआ है। फिर तुम कैसे अपने को दुर्बल कहते हो। तुम्हारे अंदर है अनंत शक्ति और आनंद का अपार सागर।
विवेकानंद मनुष्य की क्षमताओं में असीम निष्ठा रखते हैं। तभी तो वे कहते हैं- मैं यह कर सकता हूँ, यह नहीं कर सकता, ऐसे विचार कुसंस्कार हैं। अपने से या किसी अन्य से कभी मत कहो कि तुम दुर्बल हो। इसके विपरीत दुर्बल से दुर्बल व्यक्ति को भी लगातार कहते रहो, सुनाते रहो कि तुम शुद्ध स्वरूप हो। आत्मप्रेरित करने का अनूठा तरीका 'उठो, जागृत हो जाओ', उनका प्रिय संदेश था।
काम, क्रोध, आवेग जैसी नकारात्मक शक्तियों के प्रति नापसंदगी प्रकट करते हुए वे शांत-स्थिर चित्त बने रहने को कहते हैं। अस्वीकारोक्ति में भी नृशंसता एवं हिंसा के कट्टर विरोधी विवेकानंद मानते रहे कि क्षमाशीलता का अभाव या अनुपस्थिति हिंसा को बढ़ाती है। 'तुम दो गुनी करोगे, मैं चौगुनी करूँगा' वाला हिंसक एवं प्रतिद्वंद्वी भाव संपूर्ण तंत्र को छिन्न-भिन्न कर रहा है। इस विघटन में कसावट लाने एवं अखंडता स्थापित करने के लिए स्वामीजी के सिद्धांतों को स्वीकृत करना, कार्यान्वित करना आज की महती आवश्यकता है।
गीता का व्यावहारिक रूप उन्हें हमेशा आकर्षित करता रहा। गीता के शांत भाव से स्वामीजी गहरे तक अभिभूत हुए हैं। इसीलिए कहते हैं कि कार्य के भीतर आवेग जितना कम होता है, उतना ही उत्कृष्ट वह होता है। हम जितने अधिक शांत होते हैं, उतना ही हम लोगों का आत्म-कल्याण होता है और हम काम भी अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं। जब हम भावनाओं के अधीन हो जाते हैं तब अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं।
अपने स्नायु समूह को विकृत कर डालते हैं, किन्तु काम बहुत कम कर पाते हैं। जब मन शांत और एकाग्र रहता है तभी हम लोगों की शक्ति सत्कार्य में व्यय होती है। जो व्यक्ति शीघ्र ही क्रोध, घृणा या किसी अन्य आवेग से अभिभूत हो जाता है वह अपने को चूर-चूर कर डालता है। केवल शांत, क्षमाशील, स्थिरचित्त व्यक्ति ही सबसे अधिक कार्य कर पाता है।
आज जब विघटन एवं बिखराव के लक्षण सर्वत्र दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में विवेकानंद के विचारों की पुनर्स्थापना आवश्यक प्रतीत हो रही है क्योंकि उनके द्वारा दिया गया मनुष्यता एवं आत्मविश्वास का संदेश प्रत्येक मनुष्य के आत्मबल को बढ़ाने वाला है। आज जब हम तीव्र मनोबल टूटन को महसूस कर रहे हैं, स्वामीजी हमारी आवश्यकता बन गए हैं।