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जाति और गुण के आधार पर वर्णभेद

पश्चिम में ब्राह्मण और क्षत्रिय, बंगाल में कुलगुरुप्रथा

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हमें फॉलो करें जाति स्वामी विवेकानंद वर्णभेद प्रियनाथ सिंह
- प्रियनाथ सिंह
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स्वामीजी उन दिनों कलकत्ते में बलराम बसु के यहाँ ठहरे हुए थे। एक दिन मैं भेंट करने पहुँच गया। जापान और अमेरिका पर बड़ी देर तक चर्चा होती रही। मैंने पूछा- 'स्वामीजी, पश्चिम देशों में आपके कितने शिष्‍य हैं ?'

स्वामीजी- बहुत से हैं।
प्रश्न- दो-तीन हजार ?
स्वामीजी- शायद अधिक।
प्रश्न- क्या आपने उनको मंत्र दीक्षा दी है?
स्वामीजी- हाँ।
प्रश्न- आपने उन्हें प्रणव का उच्चार करने की अनुमति दे दी?
स्वामीजी- हाँ।
प्रश्न- आपने कैसे अनुमति दी, महाराज? शास्त्र तो कहते हैं कि शूद्रों को व अ-ब्राह्मणों को इसका अधिकार ही नहीं है। और फिर पाश्चात्य लोग तो म्लेच्छ हैं !
स्वामीजी- आपने यह कैसे जाना कि जिन्हें मैंने दी‍क्षित किया वे ब्राह्मण नहीं हैं?
मैं- आपको भारत के बाहर, यवन और म्लेच्छ देश में ब्राह्मण कहाँ से मिलते?
स्वामीजी- मेरे सब शिष्य ब्राह्मण हैं। मैं स्वीकार करता हूँ कि अ-ब्राह्मणों को प्रणव का अधिकार नहीं है। पर ब्राह्मण पुत्र सर्वदा ब्राह्मण ही नहीं होता, यद्यपि उसके ब्राह्मण होने की संभावना अवश्य रहती है। क्या तुमने नहीं सुना, बागबाजार के अघोर चक्रवर्ती का भती‍जा भंगी बन गया और भंगी का सब काम करता है? वह क्या ब्राह्मण का पुत्र नहीं था?

जाति से ब्राह्मण होना और गुणों से ब्राह्मण होना- ये दो भिन्न बातें हैं। भारतवर्ष में ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से ही कोई ब्राह्मण कहलाने लगता है, पर पश्चिम में यदि कोई ब्राह्मणगुणयुक्त हो तो उसे ब्राह्मण ही मानना चाहिए। जिस प्रकार सत्त्व, रज, तम तीन गुण हैं, उसी प्रकार ऐसे गुण हैं जिनसे युक्त होने पर, मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। दुर्भाग्यवश आज इस देश में क्षात्र व ब्राह्मण गुणों का ह्रास हो रहा है, पर पश्चिम के देशों में लोग क्षत्रियत्व तक पहुँच चुके हैं और क्षत्रियत्व से एक सीढ़ी आगे ही तो ब्राह्मणत्व है। उनमें से कई लोगों ने तो ब्राह्मण कहलाने योग्य योग्यता भी प्राप्त कर ली है।

प्रश्न- तो जो स्वभाव से सात्विक हैं, वे ही आपके अनुसार ब्राह्मण हैं?
स्वामीजी- बिलकुल। जैसे हर एक व्यक्ति में सत्व, रज और तम, तीनों गुण न्यूनाधिक अंश में विद्यमान हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण व क्षत्रिय आदि के गुण भी सब मनुष्यों में जन्मजात ही न्यूनाधिक मात्रा में विद्यमान रहते हैं। समय-समय पर उनमें से एक-न-एक गुण अधिक प्रबल होकर, उनके कार्यकलापों में प्रकट होता रहता है।

आप मनुष्य का दैनिक जीवनक्रम ही लें- जब वह अर्थप्राप्ति के ‍लिए किसी की सेवा करता है, तो वह शूद्र होता है, जब वह स्वयं अपने लाभ के लिए कोई क्रय-विक्रय करता है तो उसकी वैश्य की संज्ञा दी जाती है, जब वह अन्याय के ‍विरुद्ध अस्त्र उठा‍ता है तो उसमें क्षात्रभाव सर्वोपरि होता है और जब वह ईश्‍वरचिंतन में लगता है, भगवान का कीर्तन करता हैं तो ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है। यह स्पष्ट है कि मनुष्य के लिए एक जाति से दूसरी जाति में चला जाना संभव है। यदि नहीं, तो विश्वामित्र ब्राह्मण कैसे बन सके और परशुराम क्षत्रिय कैसे बन सके?

प्रश्न- आप जो कहते हैं, सही है, पर हमारे पंडित और पुरोहित हमें ऐसी शिक्षा क्यों नहीं देते?
स्वामीजी- यही तो हमारे देश का महान दुर्भाग्य है। पर इस बात को अभी रहने दो।

स्वामीजी ने इसके पश्‍चात पाश्चिमात्यों की व्यवहारवादिता की बहुत प्रशंसा की और बताया कि वे धर्म-साधना में भी कितनी व्यावहारिकता प्रकट करते हैं।

मैं- सच है महाराज, मैंने भी सुना है कि वे जब धर्मसाधना करने लगते हैं तो उनकी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियाँ बहुत शीघ्र ही जागृत होने लगती हैं। अभी कुछ दिन हुए, स्वामी सारदानन्दजी को उनके एक पाश्चात्य शिष्‍य का पत्र आया, जिससे ज्ञात हुआ कि चार मास की साधना से उसकी कितनी अधिक आध्यात्मिक प्रगति हो गई है।

स्वामीजी- देखा न। अब तुम समझे कि पश्‍चिम में ब्राह्मण हैं या नहीं? इस देश में भी ब्राह्मण हैं, पर वे अपने अत्याचारों से देश को शनै:शनै: महानाश के महागर्त में ले जा रहे हैं और उनका ब्राह्मणत्व नष्टप्राय हो गया है। आज भी गुरु शिष्य को दीक्षा देता है, पर यह उसका व्यवसाय बन गया है। और आजकल गुरु-शिष्य संबंध भी तो कितना विचित्र हो गया है। कदाचित् गुरु के घर में खाने को दाने नहीं रहते और गुरु-पत्नी उसको यह बताती है और बोलती है- 'अजी, अपने किसी-किसी यजमान के यहाँ एक बार फिर हो आओ।

सारे दिन चौसर खेलने से पेट नहीं भरेगा।' और गुरुजी जवाब देते हैं- 'अच्छा, अच्छा सुन लिया। अब चुप भी रहो। कल मुझे याद दिलाना। अभी-अभी‍ मैंने सुना है कि अपने एक यजमान को अच्छी कमाई हुई है। उनके यहाँ बहुत दिनों से नहीं गया हूँ। कल चला जाऊँगा।' यह तो है आपके पुरोहितों और कुलगुरुओं की दशा ! पाश्चात्य देशों में पुरोहितों और पंडितों का ऐसा पतन नहीं हुआ है। वहाँ के धर्मगुरु अपने से कहीं अच्छे हैं।

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