विषय- भारत में श्रद्धा का ह्रास, उसकी आवश्यकता
हमें कैसे व्यक्तियों की आवश्यकता है, सच्चा समाज सुधार
-
प्रियनाथ सिंह
मैं प्रात:काल ही बलराम बाबू के घर पहुँच गया। स्वामीजी वहाँ ठहरे हुए थे। उनका कमरा श्रोताओं से भरा था। स्वामीजी कह रहे थे- 'आज हमें श्रद्धा की आवश्यकता है, आत्मविश्वास की आवश्यकता है। बल ही जीवन और निर्बलता ही मृत्यु है- 'हम आत्मा हैं- अजर, अमर, मु्क्त और शुद्ध। फिर हमसे पापकार्य कैसे संभव है? असंभव' - इस प्रकार का अडिग विश्वास हमें मनुष्य बना देता है, देवता बना देता है। पर आज हम श्रद्धाहीन हो गए हैं और इसलिए हमारा तथा देश का पतन हो रहा है।'
प्रश्न- हम श्रद्दाहीन कैसे बन गए?
स्वामीजी- बचपन से ही हमारी शिक्षा ही ऐसी रही है। उसमें निषेश और नकार का ही प्राबल्य है। हमने यही तो सीखा है कि हम नगण्य हैं, नाचीज हैं। कभी भी हमें यह नहीं बताया गया कि हमारे देश में भी महान् पुरुषों का जन्म हुआ है। हमें एक भी तो अच्छी बात नहीं िसखाई जाती। हमें हमारे हाथ-पैर चलाना तक तो नहीं आता ! हमें इंग्लैंड के इतिहास की तो एक-एक घटना-तिथि याद हो जाती है, पर दु:ख है, हमारे देश के गौरवमय अतीत से हम अनभिज्ञ ही रहते हैं। हम केवल निर्बलता का पाठ पढ़ते हैं। परतंत्र और पराजित राष्ट्र होने से, हमें अब यह विश्वास हो गया है कि हम शक्तिहीन और परावलम्बी हैं, हम असमर्थ हैं और निकम्मे हैं। श्रद्धा और निष्ठा का ह्रास होने के सिवाय इसका और क्या परिणाम होगा? अब हमें पुन: एक बार वह सच्ची श्रद्धा और निष्ठा का भाव जागृत करना होगा, हमारे सोए हुए आत्मविश्वास को जगाना होगा, तभी आज देश के सामने जो समस्याएँ हैं, वे सुलझाई जा सकेंगी।
प्रश्न- यह क्या कभी संभव होगा? केवल श्रद्धा से ही हमारे समाज के असंख्य दोष कैसे दूर होंगे? देश में जो बुराइयाँ और कुरीतियाँ हैं, उन्हें दूर करने के लिए कांग्रेस प्रचार और आंदोलन कर रही है तथा अँग्रेज सरकार से प्रार्थना कर रही हैं। क्या इससे अच्छा भी अन्य कोई मार्ग है? श्रद्धा का इन सब बातों से क्या संबंध है?
स्वामीजी- पहले यह बताओ कि समाज के दोष दूर करने की आवश्यकता आपको है या सरकार को? यदि आपको आवश्यकता है तो क्या सरकार उन्हें दूर करेगी या आपको स्वयं ही उन्हें दूर करना होगा?
प्रश्न- पर यह तो सरकार का कर्तव्य है कि प्रजा की आवश्यकताएँ समझे और उन्हें पूरी करे। यदि हम हर एक वस्तु के लिए राजा का मुँह नहीं ताकें तो और किसका ताकें?
स्वामीजी- भिखमंगों की इच्छा कभी पूरी नहीं होती। माना कि सरकार आपको आपकी आवश्यकता की वस्तुएँ देने को एक बार राजी भी हो जाए, पर प्राप्त होने पर उन्हें सुरक्षित और संभालकर रखने वाले मनुष्य कहाँ हैं? इसलिए पहले आदमी- 'मनुष्य' उत्पन्न करो। हमें अभी 'मनुष्यों' की आवश्यकता है, और बिना श्रद्धा के मनुष्य कैसे बन सकते हैं?
प्रश्न- पर बहुसंख्यक लोगों का मत ऐसा नहीं है।
स्वामीजी- जिसे तुम बहुसंख्या कहते हो, वह मूर्खों की और साधारण बुद्धिवालों की बहुसंख्या है। सभी देशों में, जिनके पास विचार करने के लिए मस्तिष्क है, ऐसे व्यक्ति कम होते हैं। ये ही कुछ मेधावी और विचारशील व्यक्ति सर्वत्र अगुआ होते हैं और बहुसंख्या सदैव उनका अनुसरण करती है। यही अच्छा भी है, क्योंकि जब तक नेताओं के बताए हुए मार्ग पर बहुसंख्या चलती रहती है, तब तक सब काम ठीक चलता रहता है। जो सोचते हैं कि वे इतने ऊँचे हैं कि किसी के सामने सिर झुकाना उनकी शान के खिलाफ है, वे बेवकूफ हैं, मूर्ख हैं।
ऐसे व्यक्ति, अपनी दुर्बुद्धि से अपना विनाश कर लेते हैं। आप समाज-सुधार की बातें करते हैं? पर आप करते क्या हैं? आपके समाज-सुधार का मतलब होता है विधवा-विवाह या स्त्री स्वातंत्र्य या ऐसी ही और कोई बात। क्या ऐसा नहीं है? और यह भी किसी वर्ग विशेष तक ही सीमित रहता है। इस तरह के सुधार की योजना से कुछ लोगों का अवश्य भला होता है, पर समूची जाति या राष्ट्र को इससे क्या लाभ? यह तो सुधार नहीं, एक प्रकार का स्वार्थ ही है- अपने घर को झाड़-बुहार कर साफ रखना और दूसरों के घर ढहने देना !
प्रश्न- तो आपका तात्पर्य यह है कि समाज-सुधार की कोई आवश्यकता ही नहीं?
स्वामीजी- यह कौन कहता है? अवश्य समाज-सुधार की आवश्यकता है, पर जिसे आप समाज-सुधार कहते हैं उससे सर्वसाधारण जनता-भारत की कोटि-कोटि जनता का क्या हित होगा? विधवा-विवाह या स्त्री स्वातंत्र्य आदि जिन सुधारों के लिए आप चिल्ला रहे हैं, उनकी भारत की बहुसंख्य जनता को आवश्यकता नहीं है। उनमें विधवा-विवाह की प्रथा भी है और स्त्रियों को स्वतंत्रता भी प्राप्त है।
इसलिए वे इन बातों को सुधार ही नहीं मानते। मेरा तात्पर्य यह है कि ये सब दोष हममें श्रद्धा के अभाव से ही घुस आए हैं और दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। पर मैं यह चाहता हूँ कि रोग समूल नष्ट किया जाए, रोग के कारण जड़ से नष्ट किए जाएँ- रोग दबाया न जाए, नहीं तो वह फिर बढ़ता जाएगा। सुधार अवश्य हो, कौन इतना मूढ़ है जो यह नहीं मानता? उदाहरण के लिए, हमें अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित करना चाहिए, क्योंकि इसके बिना जाति की शारीरिक निर्बलता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है।
उस दिन सूर्यग्रहण था, इसलिए जो महाशय स्वामीजी से ये प्रश्न कर रहे थे बोले- 'अब मैं गंगास्नान के लिए जाऊँगा। फिर कभी सेवा में उपस्थित होऊँगा।' और प्रणाम कर चले गए।