उलझे हुए से फिरते हैं
नादिम सा एहसास लिए
दस्तबस्ता शहर में
वो नूर है
अंधेरे गुलिस्तां में।
डरावने ख़ौफ़ के साये
हर शख्स बेगाने से
शहर भर के हंगामों में
वो कायनात है
उजड़े गुलिस्तां में।
हाथ की लकीरें मिटतीं
जख्मों के निशानों से
दर्द-ए-दवा सी वो
ठंडे फव्वारे सी।
खुदा भी झुके जिसके आगे
एक नुकरई खनक सी
फनकार है वो
जादूगरनी सी।
आंखें भर-भर आएं
जब लब कंपकंपाएं
शबनम की बूंद वो
जन्नत की बारिश-सी। वह एक मां है...
(नादिम- लज़्ज़ित, दस्तबस्ता- बंधे हुए हाथ, नूर- ज्योति, कायनात- जन्नत, गुलिस्तां- गुलशन, नुकरई- चांदी जैसी)