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A Letter to Maa Durga : नवरात्रि में एक चिट्ठी मां दुर्गा के नाम

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स्मृति आदित्य

परम पूजनीय मां,
 
आपको मेरा प्रणाम पहुंचे। हर साल आप 4 बार पृथ्वी पर आती हैं। दो बार धूमधाम से और दो बार गुप्त रूप से। इस बार आपको धूमधाम से आना था लेकिन कोरोना संकट के बीच आप पृथ्वी पर पधार रही हैं... तो शायद वह रौनक, रंग और रोशनी वैसी नहीं ‍दिखेंगी जैसी हर बार होती है...
 
मां, आप आ रही हैं तो मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिए... 
 
बहुत व्यथित है मेरा मन उन नन्ही नन्ही नाजुक मासूम कन्याओं के लिए जो पिछले दिनों बेदर्दी से कुचली,मसली और नोची गईं...जलाई और फेंकी गई। 
 
हे शुंभ निशुंभ का नाश करने वाली देवी आपको ये धरती पर विचरते नर पिशाच क्यों नहीं दिखते? हे चंड मुंड का संहार करने वाली जगदंबे आपको ये विभत्स मानसिकता वाले दैत्य क्यों नहीं नज़र आते?
 
कब, आखिर कब इन्हें इनके दुष्कृत्य की सजा आपके हाथों मिलेगी। मैं जानना चाहती हूं कि जब भी आप धरा पर आती हैं तो क्या सोचती हैं इन दानवों के लिए?

मां,आप आ रही हैं तो क्या अपने पूरे अस्तित्व और ताकत के साथ अपनी उपस्थिति का अनुभव करवा सकेंगी की ये दुष्ट फिर किसी भी उम्र, वर्ग या तबके की नारी को यूं गंदी निगाहों से न देख सके, उन्हें कुत्सित मानसिकता का शिकार न बना सके। 
 
क्या आप मेरे साथ साथ पूरे देश की यह पुकार सुनेंगी की कोई दरिंदा फिर किसी सुकोमल तितली के पंख न नोंच सके। फिर कोई गुलाबी कली खिलने से पहले न मसली जाए।
 
फिर कोई लाड़ली अपनी मां के ही आंचल से खींच कर लहूलुहान और मृत न मिले। आप तो दयालु हैं न मां, थोड़ी सी, बहुत थोड़ी सी दया उन पर करो न,जो आपका ही स्वरूप मानी जाती है। 9 दिन पूजी जाती हैं। जिन्हें देवी बना कर घर घर खीर खिलाई जाती है।
 
मां, मुझे आपकी क्षमता पर तो कोई सवाल है ही नहीं, पर आप क्यों मौन हैं मैं आपकी हुंकार सुनना चाहती हूं, धनुष की टंकार सुनना चाहती हूं। 
 
आप तो कहती हैं : 
 
'अहं राष्ट्री संगमती बसना
अहं रूद्राय धनुरातीमि'
 
अर्थात् -
'मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं। मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं । धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूं।'
 
‍फिर क्यों नहीं सुनती आप? 
 
इस देश में कोई ऐसा नहीं है जो अपने बाग की कलियों को बचा सके क्योंकि माली खुद अपने ईमान पर कायम नहीं है। पिता लूट रहे हैं अस्मत और भाई हो रहे हैं विकृत।
 
आप आ रही हैं और मैं अपने देश की बच्चियों के लिए व्यथित हूं। मेरे एक-एक आंसू में उस मां का दर्द देखना ‍पिछले साल जिनकी कच्ची कोमल बेटियों को कुचला गया है। मन भारी हो रहा है, बस अब कुछ न कह पाऊंगी.. शब्दों के फूलों को चमकती रोशनी में रखकर कामना कर रही हूं कि हो सके तो शारदीय नवरात्रि पर कोई समाधान लेकर आना और मेरे देशवासियों के मानस में संस्कारों के बीज रोप कर जाना। थोड़ा लिखा बहुत समझना।
 
आपकी ही 

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