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एक खुला पत्र श्रुति के नाम : तुम कैसे भूल गई कि...

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स्मृति आदित्य

प्रिय श्रुति, 
यह खुला पत्र तुम्हें लिख रही हूं। तुमसे मैं सहमत और असहमत बाद में होती हूं सबसे पहले तो मैं याद दिलाना चाह रही थी श्रुति कि तुम भूल गई कि तुम उस देश में रहती हो जहां लोकतंत्र की दुहाई तो दी जाती है लेकिन इस 'लोक' के 'तंत्र' में हम स्त्रियां नहीं आती... तुमने कैसे हिम्मत कर ली इस देश में खुद को स्वतंत्र मानने की... तुम जानती हो ना कि हर दिन, दिन पर दिन, इसी देश में बढ़ रहे हैं आंकड़े-बलात्कार के, अपहरण के, हत्या के, तेजाब के, जिंदा जलाए जाने के...और हां अपमान, प्रताड़ना, गाली गलौज, धक्कामुक्की, दोयम दर्जे का व्यवहार और औरत को पैर की जूती समझा जाना तो भूल ही जाओ.... 


 

 
तुम कैसे भूल गई कि अपने परिवार के साथ जिस स्वस्थ माहौल में तुम रह रही हो वह समाज का सिर्फ 2 प्रतिशत माहौल है लेकिन अपने पत्र के जरिए तुम्हें 98 प्रतिशत ऐसे ही लोगों से मुखातिब होना था जो औरतों की भद्दी तस्वीरें तो पसंद करते हैं पर औरत को सम्मान देना उनके संस्कारों में नहीं...यह वे लोग हैं जो अपने घरों में औरतों को गालियां देते हुए, उन्हें लतियाते हुए बोर हो गए हैं और अब वे 'सोशल मीडिया' के चौराहे पर आ खड़े हुए हैं अपनी उतनी ही गंदी जुबान के साथ...

तुमने सवाल पूछे हैं कि उनकी बेटी होती तब भी क्या वे यही करते तो मैं बता दूं कि अब यह जुमला पुराना हो गया है... जिस समाज से तुम पर लांछनों की बरसात हो रही है उसी समाज से यह विकृत खबरें भी आ रही हैं- पिता ने किया बेटी से दुष्कृत्य, भाई ने बहन को प्रेम विवाह करने पर मार डाला, चाचा ने भतीजी को और मामा ने भांजी को, रिश्तेदार ने बच्ची को अपना शिकार बनाया। इसी समाज से खबरें आती है विश्वास के छन्न से टूटने की, रिश्तों के दरकने की, भावनाओं के बिखरने की, पवित्रता के कुचलने की, अस्मिता को छलने की और पूरे के पूरे नारी अस्तित्व को नकारने की....
 
यह वह देश है जो अंध श्रद्धा के समक्ष विवेक, बुद्धि और तर्क को अपने पैरों तले रखता है। ना जाने कितने धर्म प्रधान साधु, बाबा, (अ)संत और नेता हैं, उनके अनुयायी हैं, गुर्गे हैं, चमचे हैं जो अपने आप के लिए और अपने आकाओं के लिए कुछ भी करने को तैयार है। 
 
पर मैं यह नहीं मानती हूं कि मोदी जी की इन बातों में सहमति होगी... उनसे हम यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि वह खुली बात, खुली हवा और खुले आकाश के हिमायती हैं। लेकिन व्यक्ति पूजा के जिस दौर में हम सांस ले रहे हैं वह 'पूजे जाने वाले' को भी बेबस कर देता है। 
 
अगर तुम भूल गई कि तुम स्त्री हो तो यह कैसे भूल गई कि इसी देश और समाज में पिछले दिनों स्वतंत्र रूप से अपनी बात कहने पर पत्रकार तक को निर्ममता से जला दिया गया, राक्षसी डंपरों से कुचल दिया गया और तो और गोलियों से भी भून दिया गया। 
 
श्रुति, मैं फिर कहती हूं कि तुम्हें याद रखना था कि हम सिर्फ कागज की गुडिया हैं। हमें सिर्फ मुस्कुराना चाहिए। सजना-संवरना चाहिए, हम यहां पुरुषों के 'मनोरंजन' के लिए हैं...(?) दिल, दिमाग, सोच, विचार, अनुभूति, अभिव्यक्ति, हिम्मत, हौसला, आवाज, चुनौती, सम्मान, सुरक्षा, स्नेह... यह सब हमारे खिलौने नहीं है.. यह फैशनेबल 'शब्द' भाषणों के लिए हैं.. बड़ी-बड़ी बातों के लिए हैं, यह लुभावने नारे हैं, वादे हैं, घोषणा पत्र के नगीने हैं...भला इन पर तुम्हारा अधिकार कैसे हो सकता है? मोदी जी ने 'सेल्फी विद डॉटर' इसलिए तो शुरू नहीं कि होगी कि देश की ही एक 'डॉटर' इस तरह अपमानित हो... वह भी स्पष्ट बोलने और सटीक सोचने पर...?  
 
तुम्हें गाली देने वालों को एक 'सेल्फी' अपनी आत्मा का भी लेना होगा  .. लेकिन तुम भूल गई कि ऐसा होगा नहीं, ऐसा हो नहीं सकता...क्योंकि यहां लोकतंत्र है-जनता का, जनता द्वारा, जनता पर शासन...और इस जनता में हम स्त्रियां सिर्फ एक 'वोट' से ज्यादा कुछ नहीं... पत्र बहुत कड़वा है क्षमा चाहती हूं ....  और इन सबसे परे तुमसे भी पूछना चाहती हूं कि जब तुम एक अश्लील टीवी शो में कलाकारों की निहायत ही गंदी और अश्लील टिप्पणियां सुनती थी और मुस्कुराती थी तब यह कभी सोचा था कि वह भी स्त्री जाति के खिलाफ ही था... खैर... फिलहाल तो तुम्हारे साथ हूं... 
 
समस्त सद्भावनाओं के साथ तुम्हारी सखी 
स्मृति       
 

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