एक पेड़ के कटने की मार्मिक व्यथा
मुझे क्षमा कर देना, गुलमोहर। मैं तुम्हें बचा नहीं सकी। किसे दोष दूं अपनी विवशता का? मेरी आंखों के सामने तुम बेरहमी से काट दिए गए और मैं कुछ न कर सकी। हजारों केसरिया पीले पुष्पों से लकदक तुम्हारी सुपुष्ट बाहें काटी गईं, मजबूत शरीर पर निर्मम प्रहार किए गए और फिर, बस कुछ ही पलों में तुम्हारा समूचा अस्तित्व धराशायी हो गया और मैं?
मैं, अपनी ही लाचारी के दायरे में सिमटी छलछलाए नेत्रों से तुम्हें देखती रही। अब भी मेरे कलेजे में तुम्हारी आत्मा कांप रही है। तुम पर पड़ने वाली कुल्हाड़ी की हर मार मुझे लहूलुहान कर रही है और मैं अपनी अशक्तता को कोसते हुए तुम्हारी स्मृतियों की किरचें समेट रही हूं।
इस बार जब दो महीने पश्चात मैं उज्जैन से लौटी तो तुम्हारे निखरे-निखरे सजीले केसरिया रूप को देखकर निहाल हो उठी थी। अपनी छत से शायद ही कोई वक्त मैंने ऐसा गुजारा हो, जब ठिठककर एकटक तुम्हें न निहारा हो। तुम्हारे सुन्दर, सुकोमल फूलों को अपनी अंजुरी में समेटे न जाने मैंने कितनी कविताएं रच डालीं।