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एक खोया हुआ ख़ज़ाना जिसने लाओस में भारतीय संस्कृति उजागर कर दी

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राम यादव

, गुरुवार, 24 अक्टूबर 2024 (19:53 IST)
आसियान देशों के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 10 अक्टूबर 2024 को जब लाओस पहुंचे तो वहां बच्चों के एक समूह ने गायत्री मंत्र के साथ उनका स्वागत किया। यह अनायास ही नहीं था। सदियों पूर्व, संस्कृत लाओस की प्रमुख भाषा हुआ करती थी। हिन्दू और बौद्ध धर्म वहां एक समान प्रचलित और सम्मानित धर्म होते थे। शिवभक्ति वहां आज भी होती है। यह कहना है 60 अंतरराष्ट्रीय पुरातत्ववेत्ताओं के एक समूह का, जो वहां शोधकार्य कर रहा है।
 
दक्षिण-पूर्वी एशिया के इस देश में भारत में प्रचलित वस्तुओं जैसा सदियों पुराना एक बहुमूल्य ख़ज़ाना मिला है। 26 किलो सोने, चांदी और क़ीमती पत्थरों वाला यह ख़ज़ाना विभिन्न प्रकार के आभूषणों, बर्तनों, सजावटी वस्तुओं और पूजा-सामग्रियों के रूप में है। इन वस्तुओं की संख्या इतनी अधिक और दशा इतनी अच्छी है, कि कुछ चीज़ें तो बिलकुल नई-नवेली दिखती हैं।
 
ख़ज़ाने को देखकर सन्न : फ्रांसीसी पुरातत्ववेत्ता निकोला नौलो (Nicolas Nauleau) के नेतृत्व में 60 अंतरराष्ट्रीय पुरातत्वविदों की टीम इस ख़ज़ाने को देखकर सन्न रह गई! उसके लिए पहला प्रश्न यही था कि ये बहूमूल्य वस्तुएं जिस प्राचीन खमेर सभ्यता की देन हैं। उसके आरंभिक दिनों के बारे में भी क्या वे कुछ बता सकती हैं? क्या वे प्राचीन खमेर साम्राज्य के बहुचर्चित महानगर अंगकोर और उसके विस्मयकारी अंगकोरवाट मंदिरों के निर्माताओं के भी कोई अज्ञात रहस्य उद्घाटित कर सकती हैं?
 
पुरातात्विक शोध कार्यों के लिए आवश्यक सबसे आधुनिक उपकरणों से लैस यह टीम यह भी जानना चाहती थी कि जो अविश्वसनीय बहुमूल्य वस्तुएं मिली हैं, उन्हें बनाने की प्राचीन तकनीक व कला भला कैसी रही होगी? उनका उपयोग कौन करता रहा होगा? वे जानते थे कि धातु कर्म से बनी हर वस्तु पर उसे बनाने वाले के भी कुछ अमिट निशान रह जाते हैं। अत: सबसे पहले उन्होंने उस जगह की ज़मीन को स्कैन किया, जहां ख़ज़ाना मिला था। उन्होंने पाया कि वहां और अधिक उत्खनन की ज़रूरत है। खुदाई करने पर इस बार भी सोने की बनी कुछ दूसरी वस्तुएं तथा अस्थियों के रूप में मानवीय अवशेष मिले। हो सकता है कि ये अवशेष किसी प्राचीन राजा का सुराग दे सकें।
 
ख़ज़ाना एक किसान को मिला था : लाओस में हाल ही में मिला यह बहुचर्चित ख़ज़ाना वहां के सवानाखेत नाम के शहर से कोई 40 किलोमीटर दूर के एक गांव में एक किसान को मिला था। गांव का नाम है 'नोंग हुआ थोंग।' टीम के पुरातत्वविद ख़ज़ाने की जांच-परख के साथ-साथ उस जगह को भी देखना और जांचना चाहते थे, जहां ख़ज़ाना मिला था। यह सारा काम वहां मार्च 2024 तक चला।
 
चीन, थाईलैंड, कंबोडिया, म्यांमार और वियतनाम से घिरा लाओस एक ऐसा देश है जिसके पास कोई सागर तट नहीं है। जनसंख्या भी केवल 75 लाख है। वहां के लोग बौद्ध धर्मी हैं। उनकी भाषाओं में संस्कृत के भी अनेक शब्द मिलते हैं। हज़ार वर्ष पूर्व लाओस उस समय के लगभग 10 लाख वर्ग किलोमीटर बड़े खमेर साम्राज्य का एक हिस्सा हुआ करता था। आज का कंबोडिया ही उस समय का खमेर साम्राज्य था। उसे कंबोज देश भी कहा जाता था। 9वीं सदी से वहां खमेर साम्राज्य का विस्तार होने लगा था। उसके वास्तुशिल्पी न केवल एक से एक विशाल महल, मूर्तियां और मंदिर बनाने लगे थे, बड़े पैमाने पर धान की खेती और पानी के सदुपयोग के लिए लंबी-लबी नहरें और झील-सरोवर भी बनाते थे।

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हिन्दू-बौद्ध मंदिरों का संकुल : 13वीं सदी के आरंभ में खमेर साम्राज्य के अंगकोर नगर में हिन्दू-बौद्ध मंदिरों के 'अंगकोर वाट' नाम वाले एक विशाल संकुल का निर्माण खमेर सभ्यता की बहुचर्चित उपलब्धि बना। किंतु उस समय के अंगकोर राज्य के स्वर्णिम काल से पहले की स्थिति के बारे बहुत कम ही जानकारी उपलब्ध है।
 
अंतरराष्ट्रीय पुरातत्वविदों की टीम को आशा है कि उसे अपने अध्ययन के लिए जो आश्चर्यजनक ख़ज़ाना मिला है, उसकी सहायता से 13वीं सदी से बहुत पहले की खमेर सभ्यता पर भी प्रकाश डालना संभव हो सकता है। ख़ज़ाने में मिली अमूल्य सामग्रियों को इस समय एक गोपनीय स्थान पर बनी एक बहुत ही मज़बूत तिजोरी में छिपाकर रखा गया है।
 
पुरातत्वविदों ने जब पहली बार इन सामग्रियों को देखा तो उनकी आंखें चौंधिया गईं। एक ही बात उनके मुंह से निकलती थी, 'ऐसा तो पहले कभी नहीं देखा!' सोने-चांदी और क़ीमती पत्थरों से बनी कलात्मक आकृतियों और नक्काशियों से भरपूर विभन्न प्रकार के आभूषणों, बर्तनों, सजावटी वस्तुओं, मूर्तियों और पूजा-सामग्रियों की चमक-दमक ऐसी थी, मानो वे सदियों पहले नहीं, अभी-अभी बनी हैं। कइयों पर कोई दाग-धब्बे तक नहीं थे। 8 किलो सोना और 18 किलो चांदी इन सामग्रियों के रूप में चमचमा रही थी।
 
पश्चिमी पुरातत्वविद अवाक् : उन्होंने माना कि ऐसी उत्कृष्ट वस्तुएं उन्होंने इससे पहले कभी नहीं देखी थीं। उनकी संख्या और चमक-दमक, आकार-प्रकार और कलात्मकता अविश्वसनीय है। उन्होंने तिजोरियों वाले कमरे में ही अपने उपकरणों से एक प्रयोगशाला बनाली और 60 कला वस्तुओं तथा 1,800 छोटे-बड़े पुरातात्विक टुकड़ों की जांच-परख में जुट गए। हर छोटी-बड़ी चीज़ की पहचान तय की गई और आंका गया कि वह कितनी पुरानी है। इसके बाद उसे साफ़ किया गया, नापा-तौला गया और लंबे समय तक ज्यों-का-त्यों बनाए रखने के लिए संरक्षित किया गया। टूटी-फूटी चीज़ों की यथासंभव मरम्मत की गई।
 
पुरातत्वविद जानना चाहते थे कि ये चीज़ें कहां बनी या कहां से आई थीं और 'नोंग हुआ थोंग' गांव में ही क्यों ज़मीन के नीचे छिपायी गई थीं। इन पुरातात्विक वस्तुओं की विविधता उनके लिए एक पहेली बन गई। उनका कहना है कि इन वस्तुओं के कई अलग-अलग उद्गम स्थान रहे होंगे। सभी वस्तुएं न केवल विविधतापूर्ण हैं, उनकी बनावटों की भी भिन्न-भिन्न शैलियां हैं। कुछ चीज़ें चंपा देश की ओर इशारा करती हैं तो कुछ चीन और भारत की तरफ भी।
 
विविध कलाकृतियां : दक्षिण-पूर्वी एशिया के खमेर साम्राज्य के समय आज का वियतनाम चंपा देश कहलाता था। आज के लाओस का 'नोंग हुआ थोंग' गांव, जहां पुरातात्विक ख़ज़ाना मिला है, प्राचीन चंपा देश से 150 किलोमीटर दूर है। वहां मिली दूसरी कई कलाकृतियां और अधिक दूर की जगहों से आई लगती हैं। उदाहरण के लिए चांदी की एक बड़ी-सी तश्तरी चीन से आई रही होगी। कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं, जो खमेर सभ्यता के आरंभ काल की ओर संकेत करती हैं।
 
ख़ज़ाना जहां मिला था, खुदाई करने पर उस जगह के कुछ नीचे अतीत में वहां रहे आवासीय घरों के निशान मिले। घरों के चूल्हे और चूल्हों में पकाए गए जानवरों की हड्डियां भी मिलीं। ये अवशेष पहली या दूसरी ईस्वीं सदी में वहां कोई बस्ती रही होने के संकेत थे यानी कोई 2,000 वर्ष पूर्व वाहां आदमी रहते थे। समझा जाता है कि आरंभिक खमेर-वंशी, झीलों-तालाबों के किनारे छोटी-छोटी बस्तियों में रहना पसंद करते थे। वे धान (चावल) की खेती करते थे और आकाशीय देवी-देवताओं को पूजते थे।
 
5वीं सदी के आस-पास खमेरवंशियों के गांवों में रहन-सहन का रंग-ढंग बदलने लगा। यह वह समय था, जब भारत से आए हिन्दू वहां पहुंचने और रहने-बसने लगे थे। हिन्दुओं की रहन-सहन और धार्मिक आस्था खमेरवंशियों को लुभाने लगी थी। अंतरराष्ट्रीय टीम को लगा कि उस कालखंड को भी जानना-समझना चाहिए, जब खमेरवंशियों की रहन-सहन बदलने लगी। वे अब तक जान चुके थे कि सोने-चांदी वाली कला वस्तुओं का ख़ज़ाना कितनी गहराई में छिपा था, पर यह नहीं जानते थे कि ख़ज़ाने को वहां पर छिपाया क्यों और कैसे गया?
 
एक ग्रामीण ने सपने में देखा : छिपाने के राज़ को जानने के लिए 'नोंग हुआ थोंग' गांव के उस ग्रामीण से बात की गई जिसने ख़ज़ाने को खोजा था। उसने बताया कि उसे पहली बार इसका सुराग एक सपने में मिला। सपने में उसने देखा कि एक बौद्ध भिक्षु उसे सोने से भरा खेत दिखा रहा है।
 
भिक्षु ने कहा कि वह उसे (ख़ज़ाने को) ऊपर लाएगा। इस सपने के कुछ दिन बाद ही यह ग्रामीण जब खेत में काम कर रहा था, तब उसका फावड़ा किसी कठोर चीज़ से टकराया। वह सहम गया! उसकी पत्नी ने कहा, 'और खोदो, खोदते रहो।' पत्नी के आग्रह पर वह ग्रामीण खोदता गया। क़रीब केवल 20 सेंटीमीटर गहरी खुदाई के बाद कुछ प्याले और घड़े दिखे। जल्दी ही एक केतली, कई फूलदान, एक मंजूषा और दूसरी कई चीज़ें दिखीं। सब कुछ स्वर्ण मंडित था! ग्रामीण का सपना सच निकला।
 
पश्चिमी पुरातत्वविद् मानते हैं कि यह ख़ज़ाना जान-बूझकर छिपाया गया था। यदि ऐसा था तो वह किस का था और क्यों ज़मीन के नीचे गाड़ा गया था? इन प्रश्नों के उत्तर से पहले सवाना खेत के तिजोरी घर में ख़ज़ाने की अमूल्य निधियों की जांच-परख हुई। सभी चीज़ें चूंकि बहुत बारीक़ी से बनी और बहुत अच्छी हालत में थीं, इसलिए वे किसी अदने नहीं, बिरले मालिक की ही रही हो सकती थीं।
 
बारीक नक्काशियों और तरह-तरह के पक्षियों के नमूनों से सजी एक स्वर्ण मंडित मंजूषा सबसे अधिक ध्यानाकर्षक थी। यह निर्धारित नहीं हो सका कि वह कितनी पुरानी है। दुनियाभर के सभी पुस्तकालयों और सभी पुरातात्विक संग्रहालयों में उसके जैसी किसी दूसरी मंजूषा का कोई उदाहरण नहीं मिला।
 
अनोखी मंजूषा : इस अद्भुत मंजूषा पर जिन पक्षियों को दर्शाया गया है, उनमें गरुड़ का अलग ही स्थान है। गरुड़ पक्षी हिन्दू धर्म में विष्णु का वाहन है, इसलिए माना गया कि इस मंजूषा का संबंध भारत से है। मंजूषा पर एक हंस भी बना है। हंस हिन्दू धर्म में विद्या और बुद्धि की देवी सरस्वती का वाहन है और बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म का प्रतीक।
 
मंजूषा पर बने दूसरे पक्षी, बौद्ध धर्म के अनुसार आत्मा को स्वर्ग ले जाने वाले माने जाते हैं। इस प्रकार यह मंजूषा कुल मिलाकर यही दर्शाती है कि उसका संबंध भारत से है इसलिए हो सकता है कि भारत में ही बनी रही हो। बौद्ध और हिन्दू धर्म, लाओस सहित सभी दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में चौथी सदी के आसपास भारत से आए लोगों द्वारा पहुंचे थे। मंजूषा पर दोनों धर्मों के प्रतीकों के होने का यही अर्थ लगाया गया कि यह मंजूषा एक ऐसे समय और ऐसे स्थान पर बनी होगी, जब और जहां दोनों धर्म साथ-साथ विद्यमान रहे होंगे।
 
मंजूषा को देखकर जिस उच्च कोटि की कारीगरी का परिचय मिलता है, उसके आधार पर कहा जा रहा है कि उसे किसी राजा-महाराजा ने ही बनवाया होगा। उस राजा के पास ऐसी ही कई दूसरी मूल्यवान चीज़ों का भी संग्रह रहा होगा। मंजूषा किसी ऐसी जगह बनी होगी, जहां उच्च कोटि के धातुकर्मी कारीगर रहे होंगे। बहुत संभव है कि ख़ज़ाने में मिली मंजूषा तथा कुछ अन्य चीज़ें भी भारत में ही बनी रही हों। भारत में धातुकर्मी कार्यकुशलता की परंपरा एशिया में संभवत: सबसे पुरानी रही है।

(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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