दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी के चुनाव नतीजों ने भारतीय जनता पार्टी को खुश होने और जश्न मनाने का एक और मौका दे दिया। तीनों नगर निगमों (दक्षिण दिल्ली, पूर्वी दिल्ली और उत्तरी दिल्ली) पर भाजपा ने भारी बहुमत से लगातार तीसरी बार अपना कब्जा बरकरार रखा है। करीब दो साल पहले दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस को बुरी तरह धूल चटाकर सत्ता में आई आम आदमी पार्टी की हालत इस चुनाव में लगभग वैसी ही रही जैसी दो साल पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की हुई थी। उस चुनाव में ऐतिहासिक जीत और बहुमत हासिल करके भाजपा और कांग्रेस को हाशिये पर पहुंचा देने के बाद आम आदमी पार्टी अन्य राज्यों में भी अपने पांव फैलाने को बेताब थी। लेकिन पंजाब और गोवा में उसकी हसरतें परवान नहीं चढ सकीं। दोनों राज्यों में चोंट खाने के बाद वह दिल्ली की जनता से मरहम की उम्मीद कर रही थी लेकिन दिल्ली के मतदाताओं ने उसके जख्मों पर मरहम लगाना तो दूर, उसे सहानुभूति लायक भी नहीं समझा।
हालांकि स्थानीय निकायों के चुनाव आमतौर पर राष्ट्रीय मूड का आईना नहीं होते। इसलिए इन चुनावों के नतीजों से किसी बड़े रुझान का आकलन नहीं किया सकता, लेकिन यह भी सच है कि कुछ स्थानीय चुनाव कई बार सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि उसमें कुछ दिग्गज नेताओं की प्रतिष्ठा या साख दांव पर लग जाती है। एमसीडी के चुनाव में भी इस बार यही हुआ।
भाजपा ने 2014 में केंद्र मे अपनी सरकार बनने के बाद पिछले तीन साल के दौरान हुए सभी चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कंधे पर सवार होकर ही लड़े हैं। एमसीडी के चुनावों को भी भाजपा मोदी के राजसूय यज्ञ के अगले मोर्चे की तरह देख रही थी। हालांकि इन चुनावों को जीतने के लिए उसने अपने सारे संसाधन झोंक दिए थे, यहां तक कि अपने कई मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों को भी मैदान में उतार दिया था। लेकिन पूरा चुनाव उसने नरेंद्र मोदी के नाम पर ही लडा, भले ही म्यूनिसिपैल्टी का चुनाव प्रधानमंत्री के नाम पर लड़ने की कितनी भी आलोचना हुई हो। दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी इस चुनाव को इसी तरह लड़ा, मानो वह दिल्ली के स्थानीय प्रशासन पर अपनी पार्टी को काबिज करने लिए नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री को चुनौती देने के लिए लड़ रहे हो।
नतीजों से अलग इस चुनाव में असली हार स्थानीय मुद्दों की हुई। देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली में समस्याओं का अंबार है। लेकिन इस चुनाव में कोई भी समस्या मुद्दा नहीं बन पाई। पूरा चुनाव राष्ट्रीय छवियों के ऊपर ही लड़ा गया। कोई स्थानीय चुनाव राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन जाए, इस पर ऐतराज नहीं किया जा सकता। किसी स्थानीय चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे उठ जाएं, यह भी बात भी हजम हो सकती है, लेकिन अगर स्थानीय चुनाव में स्थानीय मुद्दे ही सिरे से नजरअंदाज हो जाएं, तो यह जरुर खटकने वाली बात है।
एमसीडी के चुनाव नतीजों ने भी उसी पैटर्न को दोहराया है, जो पिछले कुछ समय से हमें देश के कई हिस्सों मे दिख रहा है। उत्तर प्रदेश की तरह ही दिल्ली में भी भाजपा ने भारी जीत दर्ज कराके यह साबित कर दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और करिश्मा अभी भी कायम है। वहीं आम आदमी पार्टी की हार से अरविंद केजरीवाल की छवि के जादू पर जरूर सवालिया निशान लग गया है।
एमसीडी चुनाव में जहां तक कांग्रेस की बात है, उसके पास खोने को कुछ खास नहीं था। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उसका शर्मनाक सफाया पहले ही हो चुका है। इन चुनावों के जरिए वह अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल करने की हसरत के साथ मैदान में उतरी थी, जिसमें वह वोटों के लिहाजा से तो कुछ हद तक सफल रही लेकिन सीटों के लिहाज से उसे भी शर्मनाक स्थिति से रूबरू होना पडा। उसके लिए संतोषजनक बात यही रही कि जो मुस्लिम मतदाता विधानसभा में उससे छिटक कर आम आदमी पार्टी के साथ चला गया था वह इस चुनाव में बहुत हद तक फिर उसके पास लौट आया है। नतीजों को देखकर लगता है कि अगर कांग्रेस किसी तरह से आपसी फूट और बड़े पैमाने पर हुए दल-बदल से बच पाती, तो शायद तीसरे की बजाय दूसरे नंबर पर आ सकती थी। वैसे हकीकत यह है कि कांग्रेस अभी तक जिस भी प्रदेश मे तीसरे नंबर पर पहुंची, वहां फिर कभी दूसरे नंबर पर नही आ सकी, दिल्ली मे भी यह इतिहास कायम रहा है।
हालांकि इन नतीजो के आधार पर भविष्य के बारे में कोई भविष्यवाणी करना संभव नहीं है, फिर भी कई लोग आम आदमी पार्टी के इतिहास बन जाने की बात करने लगे है। यह कहा जाने लगा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में तो खैर उसका कोई बड़ा दावा नही ही होगा और विधानसभा चुनाव में भी उसकी हार तय हो चुकी है। लेकिन यह कहना शायद जल्दबाजी होगी। साल 2007 में भाजपा ने इसी तरह एमसीडी के चुनाव मे भारी जीत हासिल की थी, लेकिन 2008 के विधानसभा चुनाव में वह लगातार तीसरी बार कांग्रेस से हार गई थी। दिल्ली मे अगला कोई भी चुनाव बहुत दूर है और इस बीच बहुत सी राजनीति हो चुकी होगी।
राजनीति संभावनाओं का खेल है, लिहाजा किसी एक चुनाव में किसी राजनीतिक दल की जीत या हार से उसके भविष्य का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। यह बात जितनी भाजपा, कांग्रेस या माकपा-भाकपा जैसे अखिल भारतीय दलों पर लागू होती है, उतनी ही समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, अकाली दल या आम आदमी पार्टी पर भी। इसलिए दिल्ली नगर निगम के चुनाव में बुरी तरह हारी आम आदमी पार्टी के लिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि उसे अपना बोरिया-बिस्तर बांध लेना चाहिए।
स्थापित राजनीतिक दलों की तुलना में आम आदमी पार्टी काफी नई है और दो वर्ष पहले ही दिल्ली में जिस तरह की उम्मीदों की लहर पर सवार होकर वह सत्ता में आई थी, उससे इतनी जल्दी जनता का मोहभंग हैरान करने वाला है। ऐसा मानने वाले बहुत हैं कि आम आदमी पार्टी के जिस तरह के रंग-ढंग दिखाई दे रहे थे, उसमें यह होना ही था। दरअसल, कांग्रेस और भाजपा जैसे स्थापित दलों से निराश लोगों के लिए आंदोलन की कोख से जन्मी आम आदमी पार्टी में बदलाव और वैकल्पिक राजनीति की प्रतीक बनकर उभरी थी। पहले 2013 में और फिर 2015 में जब लोगों ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया था, तब उन्हें भरोसा था कि अरविंद केजरीवाल एक साफसुथरी-भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था देने में कामयाब हो सकते हैं। लेकिन केजरीवाल ने लोगों को बुरी तरह निराश किया।
दिल्ली में सरकार बनाने के बाद से ही वे केंद्र सरकार के साथ लगातार युध्द की मुद्रा में रहे। उन्होंने कभी यह आभास ही नहीं कराया कि दिल्ली के लोगों ने उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी है, उसे लेकर वे गंभीर हैं। उनकी सरकार ने जनहित में जो कुछेक अच्छे कदम उठाए थे, वे भी आरोप-प्रत्यारोप के कर्कश शोर में दब गए। यह सही है कि दिल्ली में सरकार चलाने के लिए केजरीवाल को केंद्र सरकार का जिस तरह का सहयोग मिलना चाहिए था, वह उन्हें नहीं मिला। मगर सवाल यह भी है कि केंद्र से संबंध सुधारने और दिल्ली को बेहतर प्रशासन देने के लिए दिल्ली सरकार ने अपनी ओर से क्या प्रयास किए? एक केंद्र शासित राज्य के तौर पर दिल्ली के क्या अधिकार है, यह सबको पता है। पहले की सरकारों ने भी इन्हीं नियम-कानूनों के तहत काम किया है।
केजरीवाल अगर चाहते तो व्यावहारिक रवैया अपनाकर जितना हो सकता था, दिल्ली के लिए केंद्र से मदद ले सकते थे। या कम से कम ऐसा करते हुए दिख सकते थे। लेकिन इसके उलट केजरीवाल की छवि हमेशा केंद्र से लड़ने का बहाना ढूंढने वाले झगड़ालू नेता की बनी। केंद्र के साथ अपनी लड़ाई को राजनीतिक मुद्दा बनाकर और बार-बार यह बताकर कि उनके साथ काम करने वाले अधिकारियों को केंद्र प्रताड़ित कर रहा है, उन्होंने प्रशासनिक अधिकारियों में डर पैदा करने करने का ही काम किया।
अगर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा पर व्यक्ति-पूजा और व्यक्तिवादी राजनीति को चरम तक पहुंचाने का आरोप लगाया जा सकता है तो उतने ही विश्वसनीय ढंग से यह आरोप अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पर भी लग सकता है। केजरीवाल ने जाने-अनजाने अपनी पूरी ताकत अपनी पार्टी का नरेंद्र मोदी बनने और दिखने में लगा दी। लोकसभा चुनाव में ढाई सौ से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने, खुद बनारस जाकर मोदी के खिलाफ उम्मीदवार बन जाने और वहां असफल रहने के बाद दूसरे राज्यो मे जनाधार बढ़ाने के लिए उनके दौरों ने इस धारणा को और मजबूत किया। कुल मिलाकर वे अपनी पार्टी का मोदी बनने के चक्कर में मोदी की घटिया फोटोकॉपी बनकर रह गए। लोगों ने फोटोकॉपी के मुकाबले मूल प्रति यानी नरेंद्र मोदी को तरजीह दी। नतीजा यह रहा कि जिस दिल्ली ने विधानसभा चुनाव में भाजपा को सिरे से खारिज कर आम आदमी पार्टी को अभूतपूर्व बहुमत दिया था, उसी दिल्ली ने उसे नगर निगमों की सत्ता के लिए बेरहमी से नालायक करार दे दिया।
कहा जा सकता है कि केजरीवाल ने 2015 के जनादेश का गलत मतलब निकाला। जनादेश उन्हें दिल्ली में बेहतर शासन के लिए मिला था और वह इसे 2014 के लोकसभा चुनावों मे भारी बहुमत से जीतकर आए नरेंद्र मोदी के खिलाफ जनादेश मान बैठे। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों में व्याप्त निराशा-हताशा से उन्हें लगा कि वह मोदी के सामने एकमात्र विकल्प के तौर पर उभर सकते है। जबकि केजरीवाल के लिए बेहतर यह होता कि वह अपना पूरा समय दिल्ली को देकर अपनी योग्यता यहां साबित करते और फिर दिल्ली से बाहर झांकते। अब भी उनके पास तीन वर्ष का समय बचा है। उनकी पहले की छवि के विपरीत पिछले दो वर्ष मे यही धारणा मजबूत हुई है कि वे आम राजनेताओं से बहुत अलग नहीं है। इसलिए विश्वसनीयता के संकट से निपटने के लिए अब उनके पास यही विकल्प है कि वे दिल्ली की समस्याओं को समझें और अपने वायदे पूरे करें। राजनीति के कैलेंडर में कोई आखिरी तारीख नहीं होती।