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जैसा मैंने अभयजी को देखा...

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नवीन रांगियाल

अखबार की दुनिया और खबरों के लिहाज से मैं एक बेहद कमसिन और नाजुक चेहरा हूं. मैं इंदौर में नईदुनिया के न्‍यूज रूम में एक बेहद पुरानी चरमराती हुई लकड़ी की कुर्सी पर बैठा हूं. मुझे टाइप करने के लिए कुछ प्रेस नोट दिए गए हैं. लेकिन मेरी दिलचस्‍पी न्‍यूजरूम में चहल-कदमी करते रिपोर्टर, न्‍यूज एडिटर, उप-संपादक और संपादकों में है.

मैं इन चेहरों में घुल सकूं, इसलिए मुझे खपने के लिए अखबारी खबरों से सने इन चेहरों के बीच छोड़ दिया गया है. इन तमाम चेहरों में एक बेहद सादा चेहरा है, जो अपने दोनों हाथों को कमर के पीछे बांधकर अक्‍सर न्‍यूज रूम में चहल-कदमी करते हुए नजर आ जाता है.

ये चेहरा है नईदुनिया की दूसरी पीढ़ी अभय छजलानी जी का. एक सादा सा बुशर्ट और पतलून. पैरों में चप्‍पल. इस चेहरे पर अपने होने का कोई अतिरेक नहीं है. अपने होने का कोई दबाव नहीं है, वो चेहरा बस है, जैसा उसे होना चाहिए. इस चेहरे पर कोई संपादक नहीं है. कोई मालिक नहीं है. वो उन तमाम चेहरों का हिस्‍सा हैं जो यहां इर्द-गिर्द मौजूद हैं. ये छवि इसीलिए खास है, क्‍योंकि उस पर खास होने का कोई दबाव नहीं है.

नईदुनिया के कार्यालय में सबसे पहले जो चीज मैं महसूस करता हूं-- वो है अखबारी कागज और स्याही की गंध, न्‍यूजरूम में की-बोर्ड की आवाजों के बीच अभयजी की चहल- कदमी और इस अखबार का सब्‍लाइम. एक ऐसा एंबियंस जो आपको कभी यह अनुभूति नहीं कराता है कि आप किसी बेहद तनाव से भरी अखबार की दुनिया में काम करते हैं. क्‍या यह बात कमाल की नहीं हो सकती कि स्‍नेह से भरे नईदुनिया के इस वातावरण का असर दूसरे शहरों की यूनिट में भी नजर आता था.

मेरी अभयजी से कभी बात नहीं हुई. मैं कभी उनसे मिला नहीं. चलते-फिरते हुए एक संकोच से भरे नमस्‍ते के अलावा कभी उनसे कोई रिश्‍ता नहीं था. किंतु अपने अखबार के माध्‍यम से वे किस हद तक हम पर अपनी छाप छोड़ सकते थे, यह बाद इंदौर की पत्रकारिता जानने वाला हर शख्‍स जानता है. किसी अखबार के कामकाज में इतनी सहजता संभवत: अभयजी की इसी छवि की बदौलत आई थी. सहजता की यही परंपरा उनके सुपुत्र विनयजी तक नजर आती है.

मेरी पत्रकारिता की शुरुआत इसी अखबार से हुई थी, हालांकि साल 2010 में जब मैं यहां ट्रेनी रिपोर्टर के तौर पर पहुंचा तो उस वक्‍त तक नईदुनिया अपनी उरूज पर नहीं, ढलान पर था, किंतु नईदुनिया एक ऐसी ऊंचाई था, जिसे बहुत बाद तक भी महसूस किया जा सकता था. नईदुनिया की आवाज देशभर में देर तक पत्रकारिता के कानों में गूंजती रही है. कई वरिष्‍ठ पत्रकारों के मुंह से सुना था कि नईदुनिया पत्रकारिता का एक स्‍कूल रहा है. तब यह एक अतिरेकता से भरा बयान लगता था, लेकिन जब बाद में अपने काम में वो सिखाई रिफ्लेक्‍ट होती है तो अपने पूर्वज पत्रकारों की उस बात पर यकीन होता है.

यह बात अभयजी के बारे में है. किंतु अभयजी से नईदुनिया को अलग कर के बात नहीं की जा सकती. अभय जी और नईदुनिया एक दूसरे के पर्याय हैं. भले ही अब नईदुनिया की ‘प्रिंटलाइन' बदल गई हो, लेकिन जो जानते हैं वो नईदुनिया को उसी गंध के साथ याद करते हैं. अभयजी की उसी सकारात्‍मक और सौम्‍यता के साथ याद करते हैं.

अभय जी अपने अखबार से कितना एकाकार थे. उस अखबार को चलाते समय बतौर उसके संपादक अभयजी अखबार में छपने वाले शब्‍दों से कितना ज्‍यादा प्‍यार करते थे, इस बात का यकीन इससे किया जाना चाहिए कि नईदुनिया में 20 से 22 प्रूफ-रीडर्स काम करते थे. जो एक-एक शब्‍द को पढ़ते थे और फोंट साइज बढ़ाकर देखते थे. हर-एक कॉमा-मात्रा को करीने से नियम के मुताबिक लगाया जाता था. देश के शायद ही किसी अखबार में इतने प्रूफ-रीडर काम करते हों. अब इस दौर में तो बिल्‍कुल भी नहीं.

बाबू लाभचंद छजलानी से प्रारंभ होने वाली अखबार की इस दुर्लभ परंपरा को अभयजी के दौर में बहुत थोड़ा देखा-जाना है. मुंबई, भोपाल, देवास और नागपुर के बाद इस वक्‍त करीब 13 साल बाद इंदौर के उसी नईदुनिया के परिसर में बैठा यह आलेख लिख रहा हूं. ठीक बाजू में वही इमारत है, जिसका स्‍वरूप हालांकि बदल चुका है. लेकिन कुछ ही दूरी पर छजलानी परिवार के घर के मुख्‍य कक्ष में अभयजी की पार्थिव देह रखी है. जो 23 मार्च की शाम किसी अज्ञात दुनिया में विलीन हो जाएगी. हम नहीं जानते वे कहां चले जाएंगे. लेकिन जो नईदुनिया उन्‍होंने बनाई थी उसे और उनके उस जीवन को तो जानते ही हैं जो अखबार के न्‍यूज-रूम में चहल-कदमी करते हुए इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचा था. अलविदा अभयजी.

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