पांच अगस्त दो हज़ार बीस को सम्पूर्ण देश (और विश्व) के असंख्य नागरिकों ने भगवान राम के जिस चिर-प्रतीक्षित स्वरूप के अयोध्या में दर्शन कर लिए उसके बाद हमें इसे एक रथ यात्रा, एक लड़ाई, एक लम्बे संघर्ष का अंत मानते हुए अब किसी अन्य ज़रूरी काम में जुट जाना चाहिए या फिर और कोई अधूरा संकल्प हमारी नई व्यस्तता की प्रतीक्षा कर रहा है?
इतने लम्बे संघर्ष के बाद अगर थोड़ी सी भी थकान महसूस करते हों, तो यह स्वीकार करना चाहिए कि जिस एक काम में इतनी बड़ी आबादी ने अपने आपको इतने दशकों तक लगाकर रखा केवल उसे ही इतने बड़े राष्ट्र के पुरुषार्थ की चुनौती नहीं माना जा सकता। हम शायद इस बात का थोड़ा लेखा-जोखा करना चाहें कि आज़ादी हासिल करने के बाद सात दशकों से ज़्यादा का समय हमने कैसे गुज़ारा और उसमें हमारे सभी तरह के शासकों की प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिकाएं और उनके निहित स्वार्थ किस प्रकार के रहे होंगे।
हमें कोई दूसरा समझाना ही नहीं चाहेगा कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के जश्न के कोलाहल के बीच एक दूसरी बड़ी आबादी अपनी सुरक्षा को लेकर इतनी भयभीत और अलग-थलग सी महसूस क्यों कर रही है। न सिर्फ़ इतना ही! इस भय की मौन प्रतिक्रिया में उस आबादी की व्यस्तताएं किसी तरह के अनुत्पादक कार्यों में जुट रही हैं? मसलन, क्या हम पता करने का साहस करेंगे कि अयोध्या में उच्चारे गए पवित्र मंत्रों की गूंज देश की ही आत्मा के एक हिस्से कश्मीर घाटी में किस तरह से सुनाई दी गई होगी! जैसा कि दर्द बयां किया जा रहा है: कश्मीरी पहले तो दिल्ली में ही पराए गिने जाते थे, अब खुद अपनी ज़मीन पर भी परायापन महसूस करने लगे हैं। क्या कश्मीरी नागरिक अपने पिछले पांच अगस्त को भूल चुके हैं?
एक विकासशील राष्ट्र के तौर पर अपने पिछले सत्तर सालों की विकास यात्रा पर थोड़ा सा भी गर्व महसूस करने की स्थिति में पहुँचने के लिए ज़रूरी हो गया है कि हम अयोध्या नगरी से अपने आपको किसी और समय पर वापस लौटने तक के लिए यह मानते हुए बाहर कर लें कि मिशन अब पूरा हो गया है।
इस बात की बड़ी आशंका है कि नागरिकों की आत्माएं अयोध्या के मोह से बाहर निकल ही नहीं पाएं। उन्हें धार्मिक-आध्यात्मिक व्यस्तताओं से जोड़े रखने के लिए किसी नई अयोध्या के निर्माण के सपने बांट दिए जाएं। नागरिक हतप्रभ हो जाने की स्थिति में इस तरह सम्मोहित हो जाएं कि अपनी उचित भूमिका को लेकर ही उनमें भ्रम उत्पन्न होने लगे। उन्हें सूझ ही नहीं पड़े कि सीमाओं पर चल रहे तनाव को लेकर किस तरह से जानकार बनना चाहिए! महामारी से लड़ाई को लेकर उन्हें गफ़लत में तो नहीं रखा जा रहा है! या यह कि अब कौन सा नया बलिदान उनकी प्रतीक्षा कर सकता है!
हमारी अब तक की उपलब्धियों को क्या इस कसौटी पर भी नहीं कसना चाहिए कि अनाज की भरपूर फसल और असीमित भंडारों के बावजूद सरकार का मानना है कि अस्सी करोड़ लोगों को उसकी मदद की ज़रूरत है। क्या इसका कारण यह नहीं समझा जाए कि इतने वर्षों की प्रगति के बाद भी इतनी बड़ी आबादी के पास अपना पेट भरने के आर्थिक साधन उपलब्ध नहीं हैं?
हमसे भी बड़ी जनसंख्या वाले चीन सहित दूसरे देशों में भी क्या जनता इसी तरह के संघर्षों में जुटी है या फिर उनकी चिंताएं उसी तरह की आधुनिक हैं जिस तरह के आधुनिक प्रतिष्ठान का निर्माण अब हम पूरी अयोध्या में करना चाहते हैं? ज़्यादा चिंता इस बात की भी है कि राजनीति में धर्म के बजाय धर्म की राजनीति को लेकर जो ताक़तें अभी तक विभाजित संकल्पों के रूप में उपस्थित थीं वे अब एकजुट होकर नागरिक प्रवाह को बदलना चाहती हों।
इस सवाल से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है कि लाखों की संख्या वाले साधु-संत, उनके करोड़ों शिष्य और भक्तों के साथ वे अनगिनत कार्यकर्ता जो मंदिर-निर्माण के कार्य को अपने संकल्पों की प्रतिष्ठा मानते हुए इतने वर्षों से लगातार संघर्ष कर रहे थे राम जन्मभूमि के छः अगस्त के सूर्यास्त के साथ ही हर तरह की चिंताओं से बेफ़िक्र हो गए होंगे! निश्चित ही इन सब को भी कोई नया धार्मिक-आध्यात्मिक उपक्रम चाहिए।
यह स्थिति ऐसी ही है कि सामरिक युद्ध में विजय के बाद शांतिकाल में सैनिकों के कौशल का किस तरह से इस्तेमाल किया जाए? दूसरे यह कि देश को अब तक यही बताया गया है कि मंदिर निर्माण के कार्य में जुटे लोगों का किसी राजनीतिक दल से सीधा सम्बंध नहीं है, सहानुभूति हो सकती है।
भारत की राजनीति के लिए पांच अगस्त के दिन को भारतीय जनता पार्टी के लिए भी आज़ादी के दिवस की उपलब्धि के रूप में गिनाया जा सकता है। वह इस मायने में कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उसे इस आरोप से लगभग बरी कर दिया कि वह (भाजपा) केंद्र और राज्यों में सत्ता की प्राप्ति के लिए राम मंदिर को मुद्दा बनाकर देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर रही है।
भाजपा अब संतोष ज़ाहिर कर सकती है कि राम मंदिर भूमि पूजन के अवसर पर कांग्रेस ने प्रियंका गांधी के ज़रिए जो वक्तव्य जारी किया उसकी शुरुआत ‘राम सब में हैं, राम सबके साथ हैं' से की और अंत ‘जय सियाराम’ से किया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी तो शुरुआत और अंत ऐसे ही ‘जय सियाराम' से किया। गांधी परिवार अगर छः दिसम्बर 1992 को ही तब प्रधानमंत्री पीव्ही नरसिंह राव के साथ खड़ा नज़र आ जाता तो कांग्रेस और मंदिर निर्माण को एक चौथाई शताब्दी का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। देश का भी बहुत सारा क़ीमती वक्त बच जाता। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)