मनुष्य की यात्रा पृथ्वी से आरम्भ होकर पृथ्वी पर ही समाप्त होती है या कि यह पृथ्वी, जीव की इस अनोखी यात्रा का एक विश्राम स्थल भर है? इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर अनेक वैज्ञानिकों और महर्षियों ने अपने-अपने दर्शन और अनुभव के आधार पर देने का प्रयास किया। इस प्रश्न को पूछने वाले लोग शायद बहुत कम होते यदि मनुष्य अपनी आयु, बिना किसी कष्ट या पीड़ा के बिता देता तब शायद न तो गौतम, भगवान बुद्ध बनते और न ही वर्धमान, भगवान महावीर बनते।
मनुष्य करे तो क्या करे? जीवन का भोग करे या कष्टों से पीड़ित, साहूकारों अथवा सिस्टम से शोषित अपने आपको बेबस मान ले? इस मायावी संसार में उसके पास थोड़ा ठहरकर ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों को समझने के लिए समय कहां है। इस वैश्विक व्यवस्था को समझने के लिए एक पूरा जीवन भी पर्याप्त नहीं। हरि याने ब्रह्माण्ड अनंत है, उसकी कथा भी अनंत है और मनुष्य की समझ भी अनंत है किन्तु अपनी समझ को विकसित करने के लिए उसके पास अनंत समय नहीं है।
शोषित और पीड़ित व्यक्ति का मनोविज्ञान समझें। कष्ट से पीड़ित मनुष्य को समझ में नहीं आता उसे क्यों सजा मिल रही है? विधाता की रचना में शोषक और शोषित दोनों का प्रावधान क्यों है? राजा भी हैं और रंक भी। किन्तु इस रहस्य को समझने का उसके पास समय नहीं है। तब उसे एक ही सहारा मिलता है। किसी धर्मगुरु के पैरों को पकड़ने का, इस उम्मीद में कि धर्मगुरु इस पीड़ादायी जीवन यात्रा को सुखद कर देंगे। गरीबी और शोषण से मुक्ति दिला देंगे। बड़ी आस्था के साथ वह अनुयायी बन जाता है। गलती मात्र यह हो जाती है कि अपने गुरु का चुनाव सही नहीं कर पाता। नरेंद्र भटकते रहे सही गुरु की तलाश में और अंत में मिले रामकृष्ण परमहंस जिन्होंने नरेंद्र को विवेकानंद बना दिया। किन्तु हर व्यक्ति इतना भाग्यशाली नहीं होता कि उसे रामकृष्ण जैसे गुरु मिल जाएं।
भारत मानता और मान्यताओं का देश है। गुरु-शिष्य परम्परा का देश है। भारतीय संस्कृति में गुरु का ओहदा गोविन्द से ऊपर है समझाया जाता है। किन्तु बाबा और गुरु में भेद है। गुरु के पास शॉर्टकट नहीं है। बाबा शॉर्टकट का वादा करता है। गुरु कठोर है, बाबा तिलस्मी। गुरु ज्ञान है, बाबा मरीचिका। गुरु मार्ग दिखाता है बाबा मंज़िल पर पहुंचाने के सपने बेचता है। गुरु मूर्त है, बाबा छलावा। कम समय में अधिक पाने की लालसा, किसी अनपेक्षित वैभव को पाने की अभिलाषा या असीमित आध्यात्मिक बल पाने की आकांक्षा मनुष्य को इन तिलस्मी बाजीगरों के छलावे में ले जाती है।
जब गुरु और शिष्य का सम्बन्ध पारस्परिक हितों के लिए हो तो वे सम्बन्ध गुरु शिष्य के सम्बन्ध नहीं अपितु व्यावसायिक संबंध हो जाते हैं। प्राइमरी स्कूल में शिक्षक छात्रों का गणित का आधार बनाता है। शिक्षा लेने के पश्चात् छात्र पुनः कभी प्राइमरी स्कूल के शिक्षक के पास नहीं जाते अपने प्रश्नों के हल के लिए। शिक्षक का काम मार्ग दिखाकर छात्रों को छोड़ देना है। जिस दिन से छात्र सही मार्ग पर चलने लगते हैं उस दिन से वे अपने गुरु स्वयं हो जाते हैं। फिर किसी गुरु की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु आज का बाबा अपने शिष्य को छोड़ता नहीं। उसे तो जीवन पर्यन्त उसे दुहना है।
तो क्या हम मानें कि जैसे-जैसे समाज शिक्षित होता जाएगा वैसे-वैसे बाबाओं के प्रति रुझान कम होगा। किन्तु ऐसा भी नहीं है क्योंकि हमने शिक्षित लोगों को भी बाबाओं के मायाजाल में फंसते हुए देखा है, हाथ की सफाई वाले बाबाओं के कारनामों पर इंजीनियरों और डॉक्टरों को लट्टू होते देखा है तो फिर अनपढ़ या शोषित लोगों पर ही मूर्ख बनने का लांछन क्यों? हमारे देश के कई बाबाओं ने पश्चिम के शिक्षित समाज में जाकर भी अपने आपको स्थापित किया है। अपनी विदेशी यात्राओं के दौरान हवाई यात्राओं में मैंने कई बाबाओं को साथ चढ़ते-उतरते देखा है। जाहिर है शिक्षा, बाबाओं के सामने झुकने से रोकती नहीं किन्तु सही एवं गलत की पहचान अवश्य करा सकती है बशर्ते निर्णय लेने में शिक्षा का उपयोग हो। यहां शिक्षा का स्तर नहीं परिपक्वता का स्तर चाहिए।
जिस दिन जनता समझ लेगी कि जीवन में चमत्कार का कोई स्थान नहीं है, उस दिन बाबाओं की छुट्टी हो जाएगी। जब तक अनहोनी टालने के उपाय हमारे पास नहीं हैं, तब तक बाबाओं की जीविका चलती रहेगी। अनहोनी जैसे अकाल मृत्यु, दुर्घटना, जानलेवा बिमारियों से मनुष्य अपने आप को जितना जल्दी सुरक्षित करेगा उतनी ही जल्दी बाबाओं से मुक्ति मिलेगी। राम-रहीम प्रकरण की वीभत्सता ने सभी विचारशील लोगों की तरह इस लेखक के मन को भी आंदोलित किया है और उसके परिणामस्वरूप अपने विश्लेषण को विचारशील लोगों के समक्ष पहुंचाने का प्रयास किया है। मेरा मंतव्य है कि हर चिंतनशील मस्तिष्क से हर समय और हर जगह ये आवाज़ें बार-बार उठनी चाहिए। व्यापक समाज का मार्गदर्शन करना तो हमारी जिम्मेदारी है।