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मेरा ब्लॉग : खबरदार ! होशियार ! मनु बने जिम्मेदार ...

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शैली बक्षी खड़कोतकर

“मम्मा, खुशखबर! बताओ क्या?”
 
“तुम फिर पेरेंट्स मीट में वॉलेंटियर हो?”
 
“ओ ..हां”
 
“ओ ....नहीं। क्यों मनु तुम हर बार यह काम ले लेते हो? चार-पांच घंटे चले जाते हैं। अगले हफ्ते से एफ.ए हैं।

“मम्मा! चिल ..। यह जिम्मेदारी का काम है।”
 
“हां, पर समय का महत्त्व भी समझो। और असली वजह मैं बताऊं, आयुष, शुभम जैसे शैतान बच्चों की खिंचाई होती है तो तुम लोगों को बड़ा मजा आता है न। 
 
“ओके! पर इस बार टीचर को सचमुच वॉलेंटियर नहीं मिल रहे थे।”
 
“सब तुम्हारी तरह टाइम पास नहीं करते न।”
 
“मम्मा, ये तो गलत है। आप ही लोग कहते हो न, अपने फैसले खुद लो, जिम्मेदारी वाले काम करो। जब मैं करता हूं, तो सब विरोध करने लगते हैं।”
 
मनु पैर पटकता हुआ रूम में जा चुका है। मम्मा अवाक् खड़ी है। इस बच्चे, ‘इस बड़े होते बच्चे’ से डील करना कई बार मुश्किल हो जाता है। वह कब किस बात को कैसे पेश करें, किस सन्दर्भ के साथ जोड़ दे या सवालों में उलझा दे, कुछ पता नहीं।
 
वैसे मनु की यह बात सही है कि इन दिनों सभी उससे ज्यादा समझदारी और आत्मनिर्भरता की अपेक्षा करने लगे हैं। सब चाहते हैं कि वह अपने काम खुद करें, निर्णय ले, कुछ हद तक। बस यही हद, यह सीमा रेखा ही स्पष्ट नहीं हो पा रही है| 
 
किशोरवय में आते ही ‘बड़ा होने’ का लेबल तो चस्पा हो गया है पर इस अस्त्र का उपयोग कभी मनु तो कभी मम्मा-पापा अपनी सुविधानुसार कर लेते हैं और दुविधा दोनों तरफ है, बराबर।
 
 
नौवीं कक्षा की शुरुआत। मम्मा-पापा का संयुक्त घोषणा-पत्र, ‘चूंकि मनु बड़ा हो गया है, उसे साइकिल से स्कूल जाना चाहिए।’
 
मनु की तत्पर प्रतिक्रिया, “बारिश में मैं रेनकोट, बस्ता और साइकिल नहीं संभाल सकता, गिर पड़ा तो मुझे नहीं पता।” 
 
निर्विवाद रूप से मनु को दादा का समर्थन प्राप्त हुआ और अंततः शुभ कार्य हेतु दशहरे के बाद का मुहूर्त तय पाया गया।
 
“मम्मा यह कुर्ता देखो।” मनु पापा के साथ मार्केट से लौटा है। “अच्छा है न, मामा की शादी में पहनूंगा।”
 
“अरे, शादी ठंड में है, कुर्ता कैसे पहनोगे? जैकेट लेना था।”
 
“मम्मा आपने ही तो कहा था, अपने कपड़े खुद सिलेक्ट किया करो।
 
“हां, लेकिन....”
 
वैसे तय तो यह भी हुआ था कि मनु अपने मोज़े और रुमाल आदि खुद धोएगा, शर्ट प्रेस करेगा और शाम को पापा के लिए चाय बनाएगा। 2 जोड़ मोज़े और 3 रुमाल के लिए झाग का ऐसा उत्तंग शिखर रचा गया कि मम्मा को बजट और धैर्य दोनों लड़खड़ाते नजर आने लगे। प्रेस की कहानी शर्ट पर बड़े और हाथ पर जरा-से जले के निशान के साथ समाप्त हुई और 3-4 बार दिल बड़ा करके तारीफ करने के बाद पापा ने आखिर कह दिया, “चाय तो तुम ही बना दिया करो। वो .....दरअसल यह बच्चों के खेलने का वक्त होता है न, इसलिए। दबी मुस्कान के साथ मनु ने आज्ञाकारी बालक की तरह बल्ला थामा और बाहर। इस तरह तीनों ही संकल्प असामयिक गति को प्राप्त हुए।
 
लेकिन सवाल जस का तस है, ‘मनु आत्मनिर्भर कैसे हो?’
 
देखा जाए तो दोष न मनु का है और न मम्मा-पापा का। मनु बचपन से ही, आजकल के अधिकांश बच्चों की तरह ही घर में, ननिहाल में लाड़ में रहा। दायित्व-बोध से ज्यादा चिंता उसकी सेहत, सुरक्षा और पसंद की रही। उसकी देखभाल के लिए मम्मा तो है ही, अन्य परिजन भी तत्पर रहे। यथासंभव हर आवश्यकता और पसंद की वस्तु उसे चुन कर मिलती रही। इसलिए न उसे ज्यादा कुछ चुनाव की जरुरत पड़ी, न करने की। पर अब स्थिति अलग है।
 
किशोरवय में आते ही सबका नजरिया बदल गया है। मनु से उम्मीद की जाने लगी है कि वो न सिर्फ अपने छोटे-मोटे काम करें, फैसले लें बल्कि बड़ों की भी मदद करें।
 
मनु पहले तो इस बदले रवैये का लेकर हैरान-परेशान हुआ पर अब धीरे-धीरे ‘बड़े होने’ को स्वीकार करना सीख रहा है। 
लेकिन क्या-कैसे करे, इस बारे में अक्सर असमंजस हो जाता है।
 
 “मम्मा, स्पाइडर-मैन सीरिज की नई मूवी आई है। मुझे और पवन को देखनी है, प्लीज। कब चलें?”

“चलना नहीं, जाना है।”
“मतलब?”
“मतलब, तुम और पवन ही जाओगे” (मम्मा और पवन की मम्मी की गुप्त वार्ता में प्रस्ताव पारित हो चुका है)”
“ठीक है, पापा टिकिट बुक कर देंगे, आप ड्राप कर देना।”
“नहीं, तुम दोनों जाना, सिटी बस से। टिकिट लेकर फिल्म देखना और बाद में रेस्टोरेंट में पार्टी करना।’
“पर आप लोग क्यों नहीं आओगे ?”
“बेटू! अब तुम्हें कुछ काम, कुछ जिम्मेदारियां खुद उठाना सीखना ही चाहिए। यह मूवी ट्रीट तुम्हारे लिए एडवेंचर होगी, तुम्हें अपने अनुभव से सीखने को मिलेगा, मजा आएगा और आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।

खुद निर्णय लोगे तो उसका दायित्व भी लेना होगा। इसलिए पहले लॉजिकली एनलाईस करो, विकल्पों पर गौर करो और फिर फैसला लो। काम में रूचि लो, उसमें अपना खास हुनर दिखाने की कोशिश करो। फिर न चाय बुरी बनेगी, न शर्ट जलेगा। हां, सावधानी रखो और गाइड या हेल्प के लिए तो हम हैं ही।”
 
“बच्चों को काफी देर हो गई है, पवन के पापा को देखने भेजूं क्या?” पवन की मम्मी फ़ोन पर है।
 
“अरे नहीं, बस पहुंचते होंगे| मनु का कॉल आया था।” (मम्मा भी धैर्य रखना सीख रही है।)
 
मम्मा की आंखें रास्ते पर लगी है।
 
दोनों दोस्त गलबहियाँ डाले थके-मांदे से लौट रहे हैं। पर चाल में अलग ही ठसक है और हंसी में अनोखी खनक।
 
“आंटी, क्या मजा आया। पता है, हाउसफुल होने वाला था। मैंने एक आंटी से रिक्वेस्ट की, उन्होंने टिकिट ले दिए।”
 
दोनों अति उत्साह में हैं। “और रेस्टोरेंट में ?मम्मा पवन तो डिसाइड ही नहीं कर पा रहा था। फिर मैंने देखा हमारे पास कितने पैसे बचे है और इसमें हम अपने पसंद का क्या-क्या आर्डर कर सकते हैं?”
 
“हमने पैसे बचाकर आइसक्रीम खाई और ये देखो क्रिकेट अटैक का एक-एक पैकेट भी लिया।”
 
“वेरी गुड! चलो अब कल स्कूल है। फिर से पढाई में जुटना है।”
 
“किसने कहा? हम बड़े हो गए हैं और हमने लॉजिकली, सोच-समझकर यह फैसला लिया है कि हम कल स्कूल नहीं जाएंगे और पढाई भी नहीं करेंगे।”
 
दोनों दोस्त अपने ही मजाक पर हंस-हं स कर दोहरे हो रहे है| मम्मा बड़े होते, इन छोटे बच्चों की ख़ुशी देख कर निहाल है।

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