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आइए, अपनी आत्मा को अमीर बनाएं

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प्रज्ञा पाठक

आपने कभी गौर किया है कि हम सदा अपनी सुनाने में यकीन रखते हैं। अपने भीतर का उड़ेलने के लिए आतुर, आत्माभिव्यक्ति के लिए व्यग्र। हमें श्रोता बनना कम रास आता है, वक्ता बनने के लिए हम सदैव तत्पर रहते हैं। इसके पीछे मानव की शासन करने की आदिम वृत्ति काम करती है। 
 
उसे सुनाना पसंद है, सुनना नहीं :- पति को पत्नी की सुनना पसंद नहीं, माता-पिता को बच्चों की सुनना रुचिकर नहीं, भाई को बहन की, बहन को भाई की, सास को बहू की बातें अप्रिय लगती हैं, शिक्षक को छात्रों की समस्याओं से सरोकार नहीं, उपदेशकों को भक्तों से अधिक अपनी दुकानदारी की चिंता, भाषणप्रिय नेताओं को जनता के विचारों से, कष्टों से मतलब नहीं।
 
सब अपनी कहने में मग्न, श्रोता की भावना, दृष्टि, मत, समस्याएं आदि सबकुछ उपेक्षित। इस सबमें होता यह है कि एक पक्ष सर्वथा अनसुना रह जाता है। उसका मन अनजाना और अनचिन्हा ही छूट जाता है। दांपत्य में अधिकांशतः पत्नी की भावनाएं अनभिव्यक्त रह जाती हैं। इस कारण वह घुटन महसूस करती है। पति की पारंपरिक सोच उसे तय खांचों में आबद्ध करके रखती है, जिनमें उसकी कोमल भावनाएं, छोटी-छोटी इच्छाएं, दूरदृष्टिता आदि दम तोड़ देती हैं। क्या ही अच्छा हो कि पुरुष अपनी पत्नी को मित्रवत् मानें ताकि वो अपना मन उनसे बेझिझक साझा कर सकें। 
 
बच्चों के लिए उम्र का हर पड़ाव कुछ नई समस्याएं लाता है। बचपन की स्वास्थ्यगत परेशानियां, किशोरावस्था में प्रवृत्तिगत समस्याओं में तब्दील होती हैं और युवावस्था में करियर को लेकर अहम प्रश्नों से जूझना होता है। इन सभी दौर में माता-पिता से अपने विचारों और भावनाओं की साझेदारी अत्यावश्यक है क्योंकि अनुभव संपन्नता दिशा देने में समर्थ होती है। प्रायः कई अभिभावक यहीं चूक जाते हैं। वे अपने अनुभव को सर्वोच्च वरीयता देकर बच्चों को उसी के अनुसार निर्णय लेने के लिए बाध्य करते हैं।
 
जबकि कई बार परिस्थिति भिन्न होती है और उसमें बच्चों को लीक से हटकर काम करना अधिक हितकारी होता है। ऐसे में यदि माता-पिता अपने अनुभव को ही अंतिम निर्णयकर्ता मानने पर बलपूर्वक अड़े रहते हैं और बच्चों का पक्ष नहीं सुना जाता, तो बच्चे मौन धारण कर घर के प्रति उपेक्षा भाव धारण कर लेते हैं और ये भाव आजीवन कायम रहता है क्योंकि उनके मन में ये बात दृढ़ता से पैठ जाती है कि घर में उनकी राय का कोई महत्व नहीं और वे सर्वथा अधिकारविहीन हैं। जबकि होना तो ये चाहिए कि अभिभावक बदलते युग के मद्देनजर पहले बच्चों की सुनें, फिर अपनी कहें। तत्पश्चात योग्य निर्णय लें। 
 
इसी प्रकार अन्य रिश्तों में भी यही बात लागू होती है। भाई अपनी बहन को रूढ़िवादी चश्मे से देखते हुए अनसुना ना करें और बहन, भाई को आधुनिकता की खोखली झोंक में नजरअंदाज़ ना करें। दोनों परस्पर स्नेह से बंधे समान भाव से एक-दूजे को सुनें, समझें। सास अपनी बहू को पुत्रीवत् भाव से ग्रहण करें, तो उसका किसी भी मुद्दे पर बोलना बुरा नहीं लगेगा क्योंकि तब उसे केवल कर्तव्यों में बांधें रखने वाली पक्षपातपूर्ण दृष्टि समाप्त होकर आत्माभिव्यक्ति के सहज मानवीय अधिकार से संपन्न मानने वाला विवेकयुक्त व स्नेहमयी कृपा भाव विकसित हो चुका होगा। 
 
जहां शिक्षक अपने छात्रों को सर्वथा अनसुना कर ज्ञान और अनुशासन के डंडे से हांकना आरंभ करते हैं, वहां छात्र या तो भीरु हो जाते हैं अथवा बागी। इसलिए शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों का मार्गदर्शन अवश्य करें, लेकिन उनकी समस्याओं, जिज्ञासाओं और दृष्टिकोण के निरंतर संपर्क में रहें, उनके योग्य समाधान व परिष्कार हेतु प्रयासरत रहें। उनका मानस पढ़कर तदनुकूल दिशा बोध दें। 
 
इसी प्रकार अधिकांश धर्मोपदेशक अपने भक्तों को उनकी जेब के आधार पर नैकट्य या दूरी प्रदान करते हैं। धर्म जैसी महान अवधारणा अब व्यावसायिकता की बलि चढ़ने लगी है। वस्तुतः सच्चा धर्मोपदेशक अपनी भौतिक कमाई पर नहीं बल्कि पुण्य कमाई पर ध्यान देता है। वह भक्तों के धन की सफाई के स्थान पर उनके मन के विकारों की सफाई करता है। वह भक्तों के लिए आत्मसुधार का मार्ग प्रशस्त करता है न कि स्वविकास का। 
हमें अपने विवेक को जागृत रखते हुए सही धर्म- उपदेशक की पहचान करना चाहिए। 
 
यही बात नेताओं के लिए भी लागू होती है। जो अपनी ही अपनी बात करें, वो स्वार्थी तत्व और जो जनता के कष्टों, जरूरतों को उसके बीच जाकर समझे और तत्संबंधी निराकरण की दिशा में काम करें, वो असली नेता। यदि आज सभी नेता ऐसा परोपकारी चरित्र अपना लें, तो देश की कायापलट होते देर न लगेगी। 
 
सार यह कि मात्र अपनी कहना और दूसरों की ना सुनना खुशी पाने का अत्यंत संकीर्ण और अस्थायी जरिया है। यदि अपने जीवन में खुशी को व्यापक रूप देते हुए स्थायी करना है, तो अन्यों को स्वयं पहल करके सुनिए, समझिए, जानिए और उनके लाभार्थ कर्मरत होइए। जब आप 'स्व' से हटकर 'पर' पर केंद्रित हो जाएंगे, तब प्रसन्नता व संतोष हजार-हजार गुना होकर आप तक आएंगे। वेदों में कहा गया है कि दो हाथ से किया हुआ सत्कर्म सहस्र गुना होकर फल देता है।
 
फिर देर किस बात की? आज से, अभी से धैर्यपूर्वक, मन बड़ा रखकर अच्छे श्रोता बनिए, सभी की सुनिए, फिर उन्हें गुनिए और तब जो जीवन-नवनीत पाएंगे, वो आपकी आत्मा को ऐसा अमीर बना देगा, जो कभी निर्धन नहीं होता। 
 

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