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जीवन दिव्य वरदान है ... इसे यूं सहेजें...

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प्रज्ञा पाठक

जीवन कितना लघु है! एक सांस छूटी और खत्म।
 
हम रोज़ पढ़ते-सुनते-देखते हैं । कभी हृदयाघात, कभी दुर्घटना,कभी रोग और कभी आत्महत्या, तो कभी हत्या का रूप ले मृत्यु आती है और तत्क्षण इंसान उसका ग्रास बन जाता है।
 
लेकिन यह सब जानते-बूझते हुए भी हमारे दिल से भावों की कल्मषता समाप्त नहीं होती। हम हर क्षण किसी न किसी के प्रति क्रोध या ईर्ष्या अथवा घृणा या फिर द्वेष से भरे होते हैं।
 
कारण हज़ार गिनाए जा सकते हैं और गलती भी सदैव 'अन्य' की ही बताई जाकर स्वयं पाक-साफ रहने का दावा अटल होता है।
 
बहरहाल , मैं गलती पर जाना नहीं चाहती ,मैं तो उस बिंदु पर ध्यान आकृष्ट करना चाहती हूं ,जो इन सब क्षुद्रताओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है और वह है - 'जीवन ।' 
इन सब नकारात्मकताओं में जीते-जीते हम इन्हें ही 'जीवन' मान लेते हैं जबकि जीवन इन सबसे ऊपर और इनसे पृथक ईश्वर का वह दिव्य वरदान है ,जो प्रेम से युक्त होकर जीने में ही अपने होने की सार्थकता पाता है ।
 
आप प्रकृति को देखिए ना! भिन्न-भिन्न मौसम के अनुरूप कैसे स्वयं को सजा-संवारकर न केवल हमारे समक्ष प्रस्तुत होती है अपितु हमारे जीवन और आनंद के लिए आवश्यक सभी उपादान भी मुक्त हस्त से हमें प्रदान करती है। न वह किसी से पक्षपात करती है,न दोहरा व्यक्तित्व रखती है। वह हर अमीर -गरीब के लिए समान रूप से मौजूद होती है। उसके दाय हर एक को उपलब्ध हैं। 
 
उसके हवा,पानी,प्रकाश,फल,फूल,अन्न पर सभी का अधिकार है। फिर हम मानव क्यों हर वक्त 'तेरा-मेरा' में लगे रहते हैं ?
 
हम सभी जानते हैं कि इस सृष्टि पर हमारा अस्तित्व कुछ ही समय के लिए है और यह 'कुछ समय' कभी भी समाप्त हो सकता है तो फिर उसे दुखप्रदायक चीजों को करने में क्यों लगाएं ?
 
हम दूसरों के लिए ईर्ष्या,क्रोध,अमर्ष,घृणा,कटुता, रखेंगे ,तो मन में सदा क्लेश बना रहेगा और यही क्लेश हमें अस्वस्थ बनाता है।
अधिकांश शारीरिक समस्याओं के मूल में मानसिक संताप ही होता है ।
 
हम परहित पर न भी जाएं ,फिर भी स्वहित तो करेंगे ही। इसलिए स्वयं के लिए जो बेहतर हो, वही करें। 
 
यह बेहतरी ह्रदय को सत् भावों से आपूरित रखने में है न कि असत् भावों से कलुषित करने में।
 
माना कि दुनिया भली नहीं है और हम उसे पूर्णतः सुधार नहीं सकते। लेकिन हम स्वयं को तो भला बना सकते हैं। किसी के व्यवहार से हमें कष्ट हुआ हो, तो आजीवन मन में गांठ रखने के स्थान पर उसे मन के एक कोने में दबाकर आगे बढ़ जाना श्रेयस्कर होता है। मैंने यहां विस्मृत करने के स्थान पर एक कोने में दबा देना इसलिए कहा क्योंकि हम आम गृहस्थ हैं,संत नहीं,जो विस्मृत कर जाएं।हमारे जेहन में अच्छी-बुरी स्मृतियां सदैव बनी रहती हैं,लेकिन स्वयं को सुखी रखने के लिए बुरी स्मृतियों पर अच्छी स्मृतियों को हावी करना आवश्यक है। समय के आलोड़न-विलोड़न में सुख दुःख आते-जाते हैं-इस अकाट्य तथ्य को याद रखते हुए थोथा हटाकर सार ग्रहण करें और सदैव खुश रहने का प्रयास कीजिए।
 
मैंने पाया है कि जब हम खुश रहते हैं, तो उसकी सकारात्मक ऊर्जा से हमारे आसपास का वातावरण भी आनंद से भर उठता है। सुख से सुख और दुःख से दुःख का प्रसार होता है। यहां तर्क उपस्थित किया जा सकता है कि कोई हमें आहत करे तो दुःख होना स्वाभाविक है , क्रोध भी आना सहज है।
 
सत्य है कि यह सब होगा तो होने दें इसे। लेकिन इसे मन में स्थायी घर न बनाने दें। क्रोध आया,व्यक्त हुआ। घृणा हुई,शब्दों व कर्म के माध्यम से विरेचित हुई। 
 
बस, इससे अधिक विस्तार इन्हें न दें क्योंकि तब ये दूसरों से अधिक स्वयं आपके लिए कष्टकारी हो जाते हैं। आपका संपूर्ण वजूद स्नेह से संपन्न होकर जो विशालता पाता, वह निरंतर कटुता से छिन्न-भिन्न हो कर ओछेपन की शरण में चला जाता है।
 
और जीवन ? वह तो बेचारा अनजीया ही रह जाता है क्योंकि उसके मूल में तो ईश्वर ने प्रेम रखा था, सद्भाव रखे थे और इन सब की परिणतिस्वरूप आनंद रखा था।
 
आप स्वयं विचार कीजिए कि क्या आपका वर्तमान जीवन प्रेम ,सद्भाव और आनंद में बीत रहा है ?
 
यदि हां,तो निश्चित रुप से वह सार्थक है और आप श्रेष्ठ मानव हैं। यदि ना, तो यह चिंता व चिंतन का विषय है क्योंकि तब आप ही स्वयं के सबसे बड़े शत्रु हैं और एक निकृष्ट मानव के रूप में जीवन जी नहीं,ढो रहे हैं।
 
बेहतर तो यही होगा कि हम जीवन रूपी ईश्वरीय वरदान को वरदान की भांति जीयें ना कि शाप की तरह और यह तभी संभव होगा जब हमारे ह्रदय में सभी अच्छे-बुरे भावों का आगमन-निर्गमन होता रहे, लेकिन स्थायित्व 'प्रेम' का हो।
 
यदि यह कर लिया तो आनंद का आना तय है और फिर देखिए कि जीवन आपको कितनी खुशियां देता है। एक बार, बस एक बार इसे इसके सही मायनों में जी कर तो देखिए।

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