पाकिस्तान के बाहरिया विश्वविद्यालय ने छात्र छात्राओं को कक्षा व कैंपस में साथ बैठने की स्थिति में परस्पर 6 इंच की दूरी रखने का आदेश जारी किया है। विश्वविद्यालय ने इसका उद्देश्य नैतिक आचार संहिता को कायम रखना बताया।
ये खबर पढ़कर ऐसा लगा मानों पाकिस्तान अब भी सोलहवीं शताब्दी को जी रहा है। उसकी पिछड़ी सोच यही साबित करती है कि 'प्रगति' के उचित मायने उसने अब तक जाने ही नहीं, शिक्षा को सही अर्थों में जीया ही नहीं। शायद इस बात को वहां का एक अपेक्षाकृत रूप से परिपक्व तबका समझता है,इसीलिए विश्वविद्यालय के छात्रों सहित शिक्षक भी इसका पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं।
सन् 1947 में अपने धर्म की स्वतंत्र पताका फहराता हुआ पाकिस्तान सहोत्साह भारत से अलग हुआ। इतने वर्षों में भारत ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति की है। विश्व-पटल पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की है। अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस जैसे विश्व के शक्तिशाली राष्ट्र भारत के प्रधानमंत्री के लिए अपना प्रोटोकॉल तोड़कर उनका भव्य स्वागत करते हैं और प्रत्येक वैश्विक मुद्दे पर भारत की दृष्टि को पर्याप्त महत्व दिया जाने लगा है।
इसके विपरीत पाकिस्तान की छवि सम्पूर्ण विश्व में एक अल्पविकसित, धार्मिक रूप से संकीर्ण,महिला शिक्षा के प्रति उदासीन और आतंकवादियों को प्रश्रय देने वाले राष्ट्र की है। अमेरिका,चीन समेत सभी बड़े और ताकतवर राष्ट्रों के समक्ष उसकी स्थिति कृपाकांक्षी की ही होती है। आज़ाद होने के बाद वहां प्रगति के नाम पर सिर्फ़ सैन्य शक्ति ही बढ़ी है और उसका भी एक मात्र लक्ष्य काश्मीर ही है। धर्म,शिक्षा,चिकित्सा, विज्ञान आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि पाकिस्तान ने हासिल नहीं की।
पाक जिस मुस्लिम धर्म का झंडा थामे भारत से पृथक हुआ, वह भी सुन्नी और शिया में बंटकर परस्पर विवादग्रस्त ही रहता आया है। एक ही धर्म से संबंधित होकर भी दोनों के मध्य खूनी जंग हो जाना वहां आज भी आम है।
फिर शिक्षा को देखें,तो वह अधिकांशतः मदरसों के जरिए दी जाती है,जो संकुचित धार्मिकता के साथ-साथ आतंकवाद के गढ़ हैं। शिक्षा के आधुनिकीकरण पर हुक्मरान की न तो दृष्टि है,न ही रुचि। उन्हें अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने से ही फुर्सत नहीं है।
यदि स्त्री शिक्षा के पैमाने पर देखें तो आज भी पाकिस्तान में यह अधिकांशतः उपेक्षा का ही विषय है। वहां की सरकार अपने देश की आधी आबादी को शिक्षित बनाकर उसकी क्षमताओं को राष्ट्रहित में भरपूर उपयोग करने के स्थान पर कठमुल्लाओं के फतवों को सर-आँखों पर लेकर उसे पर्दे में रखने की मर्यादा-पालन का स्वांग रचे बैठी है।
जो लड़कियां या महिलाएं विरोध कर शिक्षा प्राप्त करने जाएं,उन्हें परिवार और समाज दोनों से प्रतिबंध व प्रताड़ना ही मिलती है। मलाला यूसुफजई का किस्सा हम सभी को ज्ञात है।
चिकित्सा के क्षेत्र में देखें,तो आज भी गंभीर बीमारियों के मरीज़ बेहतर इलाज के लिए पाकिस्तान से भारत आते हैं और पाक के तमाम बुरे आचरण और गलत हरकतों के बावज़ूद भारत सदैव ऐसे मरीजों के वीज़ा से लेकर अस्पताल व इलाज तक की राह आसान बनाता है।
वस्तुतः मेरी दृष्टि में तो पाकिस्तान नितांत ही अव्यावहारिक दृष्टि और अविचारित निर्णयों वाला राष्ट्र है। इसे न धर्म समझ में आता है और न शिक्षा। इस्लाम के नाम पर वहां जो कुछ भी हो रहा है, वह धर्म तो कदापि नहीं है। यदि उदाहरण के लिए आलेख के आरंभ में उल्लिखित तुगलकी फरमान को ही लें तो कोई औसत बुद्धिसंपन्न व्यक्ति भी कह सकता है कि पाकिस्तान लड़के-लड़कियों में यह बेतुकी दूरी पैदा कर अपने मानसिक दिवालियापन का परिचय दे रहा है।
ईश्वर ने स्त्री और पुरुष के रूप में सृष्टि संचालन के दो स्तंभों का निर्माण किया है। दोनों के उचित तालमेल और साहचर्य से ही सृष्टि गतिमान होती है। इसे प्रेमी- प्रेमिका या पति-पत्नी की संकुचित दृष्टि से ना देखें बल्कि समान बुद्धि,शक्ति, योग्यता और क्षमता के आधार पर समझें।
जब तक किसी राष्ट्र में स्त्री व पुरुष, लिंगभेद की संकीर्णता से परे समान रूप से शिक्षित और कर्मरत नहीं होंगे,तब तक वह राष्ट्र उन्नति के सुनहरे हर्फ़ नहीं पढ़ पाएगा।
पाकिस्तानी सरकार के आकाओं को (जो सुशिक्षित ही होंगे) यह बात समझकर राष्ट्रहित में अनुकूल निर्णय लेने चाहिए ताकि उनका देश सही अर्थों में उन्नति भी करे और संपूर्ण विश्व के समक्ष हास्य या उपेक्षा का पात्र ना बने।