-ऋतुपर्ण दवे
अब तक सभी यह मानते थे कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल की कीमतें घटती हैं तो असर भारत में भी दिखता है। लेकिन अब यह बीते दिनों की बात हो गई है। फिलहाल ठीक उल्टा है। विश्व बाजार में दाम घट रहे हैं, हमारे यहां लगातार बढ़ रहे हैं। लोगों की चिन्ता वाज़िब है। आखिर यह खेल है क्या?
शायद यह हमारी नियति है या राजनैतिक व्यवस्था का खामियाजा? जो भी कहें सच्चाई यही है कि टैक्स बढ़ाकर घटती कीमतों से सरकार खजाना तो भर रहा है लेकिन बोझ आम आदमी के कंधों पर ही है। लोकतांत्रिक सरकार और लोकतांत्रिक भगवान (मतदाता) के बीच इतना विरोधाभास क्यों और कब तक?
यह सच है कि पेट्रोल-डीजल के दाम बीते तीन वर्षों की अधिकतम ऊंचाइयों पर हैं। लेकिन उससे भी बड़ा सच यह कि विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतें लगभग आधी हैं। जून, 2014 में जो कच्चा तेल लगभग 115 डॉलर प्रति बैरल था, वही अब बहुत नीचे गिरकर 50-55 डालर के आस-पास स्थिर है। दाम घटने के बावजूद नवंबर 2014 से लगातार 9 बार डीजल-पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई गई। उस समय पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 9.20 रुपए थी जो जनवरी 2017 तक बढ़कर 21.48 रुपए हो गई है।
इसी तरह नवंबर 2014 में डीजल की एक्साइज ड्यूटी 3.46 रुपए, जनवरी 2017 तक 17.33 रुपए हो गई। 26 मई 2014 को जब मोदी सरकार ने शपथ ग्रहण किया तब कच्चे तेल की कीमत 6330.65 रुपये प्रति बैरल थी जो अभी पिछले हफ्ते ही आधी घटकर लगभग 3368.39 रुपये प्रति बैरल हो गई। 16 जून से पूरे देश में डायनामिक प्राइसिंग लागू होने से हर रोज सुबह 6 बजे पेट्रोल-डीजल के दाम बदल जाते हैं। सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि मौजूदा सरकार के आने के बाद से डीजल पर लागू एक्साइज ड्यूटी में 380% और पेट्रोल पर 120% की वृध्दि हो चुकी है। कई राज्यों में पेट्रोल के दाम 80 रुपए के पार जा चुके हैं। 17 सितंबर को मुंबई में पेट्रोल 79.62 रुपए,डीजल 62.55 रुपए, दिल्ली में पेट्रोल 70.51 रुपए, डीजल 58.88 रुपए प्रति लीटर रहा।
उपभोक्ता की दृष्टि से देखें तो विश्व बाजार की मौजूदा कीमतों की तुलना में यहां प्रति लीटर भुगतान की जाने वाली कीमत का लगभग आधा पैसा ऐसे टैक्सों के जरिए सरकार के खजाने में पहुंच रहा है। बढ़े दामों का 75 से 80 प्रतिशत फायदा सरकारी खजाने में जबकि उपभोक्ताओं को केवल 20-25 प्रतिशत ही मिल पाया। अर्थशास्त्रियों के अनुमान पर जाएं तो पिछले तीन साल में कम से कम 5 लाख करोड़ रुपये सरकार के पास जमा हुए हैं।
बड़ी विडंबना देखिए केन्द्रीय पर्यटन मंत्री अल्फोंज कन्ननाथनम पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों पर कहते हैं- 'जो लोग पेट्रोल डीजल खरीद रहे हैं वह गरीब नहीं है और ना ही वह भूखे मर रहे हैं। पेट्रोल-डीजल खरीदने वाले कार और बाइक के मालिक हैं। उन्हें ज्यादा टैक्स देना ही पड़ेगा। सरकार को गरीबों का कल्याण करना है, और इसके लिए पैसे चाहिए इसलिए अमीरों पर ज्यादा टैक्स लग रहा है। गरीबों का कल्याण कर हर गांव में बिजली देना है, लोगों के लिए घर और टॉयलेट बनाना। इन योजनाओं को अमली जामा पहनाने है जिसके लिए काफी पैसा चाहिए इसलिए उन लोगों पर टैक्स लगा रहे हैं जो चुकाने में सक्षम हैं।'
इस अंकगणित को कौन झुठलाए कि आम आदमी की जेब पर केवल पेट्रोल और डीजल का खर्चा नहीं बढ़ता है, हर चीज महंगी होती है। परिवहन कर जो सामान एक-दूसरे स्थान पर भेजा जाता है, महंगा होता है। इससे उसकी लागत बढ़ जाती है, मुद्रा स्फीति भी बढ़ती है, और थोक मूल्य सूचकांक में वृद्धि होती है। उन्मुक्त बाजार के नाम पर पेट्रोलियम की कीमतों में दखल न देकर उपभोक्ताओं का हिस्सा मारा जा रहा है। सरकार की कमाई बची रहे इसलिए केंद्र और राज्यों ने इसे जीएसटी से भी बाहर रखा है।
क्या राजस्व जुटाने के लिए मौजूदा सरकार के पास सिवाए पेट्रोलियम पर टैक्स वसूलने के दूसरा कोई रास्ता नहीं है? क्या पेट्रोलियम मंत्री के ट्वीट कि दुनिया के कई देशों में भारत से महंगा पेट्रोल-डीज़ल मिलता है, हम विकसित या विकासशील देशों के बराबर पहुंच जाएंगे? दूर नहीं पड़ोस में ही देखें पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में पेट्रोल-डीजल के दाम हमसे कम हैं। क्या हम उनसे भी पीछे हैं, क्या उनको सरकारी खजाने में ज्यादा धन की जरूरत नहीं है, क्या उन्हें विकास और गरीबों के कल्याण की चिन्ता नहीं है? मई 2008 में जब यूपीए सरकार ने पेट्रोल-डीजल के दामों में चार साल बाद वृद्धि की थी तब इसी भाजपा ने सरकार पर आर्थिक आतंकवाद के आरोप मढ़े थे और आज खुद ही उससे भी आगे नक्शे कदम पर है।
पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान की जीएसटी काउंसिल से पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाने की अपील के अमल में आने के बाद देश भर में समान कीमतों पर एक्साइज का क्या असर होगा इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। फिलाहाल केन्द्रीय मंत्री अल्फोंज कन्ननाथनम के शब्दों की अनुगूंज ही काफी है जिसमें कहते हैं वह जो लोग पेट्रोल डीजल खरीद रहे हैं वह गरीब नहीं है और ना ही वह भूखे मर रहे हैं। लोग एक-दूसरे से पूछते हैं क्या यही अच्छे दिन हैं और देश बदल रहा है?