मनहूस दस्तक तो सुनाई देती है न। मंडप में शिवांगी ने शादी से इंकार की खबर पढ़ने के बाद कई प्रश्न मकड़जाल की तरह मस्तिष्क को घेर रहे हैं। कमी कहां रह जाती है? पालन-पोषण में? संस्कारों में? परिवार में? या समाज में? समझ नहीं पा रही।
यहां मैं शिवांगी की बात कर रही हूं। वही दतिया में रहने वाले अग्रवाल परिवार की बेटी। जिसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ-साथ मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन की भी पढ़ाई की हुई थी। आत्मनिर्भर थी। अच्छी-खासी नौकरी भी थी। जब ग्वालियर के प्रतीक से सगाई हुई तब लेन-देन की कोई बात नहीं थी।
पर सगाई और शादी के बीच के 6 महीनों में वर पक्ष ने मांग रखना शुरू कर दिया। बस यहीं से क्या परिवारजन और शिवांगी को 'कुछ तो गलत है' की दस्तक सुनाई नहीं दी? जैसा कि खबर में मालूम हुआ कि वर पक्ष लगातार केश व ज्वेलरी की मांग करने लगा था। तब भी ये काली दस्तक सुनाई तो दी होगी न? अपशकुन की भी पहचान तो अब करनी ही पड़ती है। जो कुछ भी हुआ, अच्छा ही हुआ।
लालच तो सुरसा के मुंह के समान होता है। फटता ही चला जाता है। सोचने वाली बात यह है कि आज भी हम और हमारी बेटियां इन हादसों का शिकार हो जाती हैं। आखिर क्यों? बचपन से ही 'बेटी पराया धन', 'आंगन की चिरैय्या', 'दूसरे घर जाना है', 'ससुराल जाना है', 'तुम्हें ही वहां समझौते करना है, एडजस्ट करना है' और भी जाने किन-किन वाक्यों को सुनते-सुनते परायेपन के बोध से कब ग्रसित हो जाती हैं कि पता ही नहीं चलता।
उन्हें लगता है कि इतना पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर होने के बाद भी शादी करना ही जीवन का मकसद है, मंजिल भी। बहनों का ज्यादा होना, माता-पिता के पास धन-संपत्ति होना-न होना। समाज के रीति-रिवाज व परंपरा उस पर संस्कारों का बोझ और 'लोग क्या कहेंगे' की दहशत।
पर अब बदलाव जरूरी है। आज बेटियों को अच्छे स्कूल में पढ़ाते हैं, सारी जरूरतें और इच्छाएं, नाज-नखरे बड़े प्यार से पूरे किए जाते हैं। जान से ज्यादा प्यार करते हैं। उसे कोई दु:ख न पहुंचे इसलिए अपनी सारी ताकत लगा देते हैं। फिर शादी जैसे मामले में मजबूर क्यों हो जाते हैं? कम से कम शिवांगी ने हिम्मत तो दिखाई। देर ही से सही, बीमारी का इलाज तो किया। शाबाश शिवांगी!
अपना सबकुछ छोड़कर आने वाली उस बेटी को बहू के रूप में तुम प्रताड़ित करो, ये अधिकार तुम्हें किसने दिया? रिवाज के नाम पर उसका सूटकेस खुलवाना तुमको शोभा देता है? शर्म नहीं आती? उसका निजी सामान भी तो होगा। तुम घटिया सोच के शिकार, मानसिक बीमार...!
तुम्हें अपनी बहू से प्यार नहीं? उसके सामान पे नीयत। उसके पर्स में रखे नकद पर नजर। धिक्कार है तुमको। कितना सोना लाई, कितना नकद, ऐशोआराम का सामान, रिश्तेदारों के तोहफे, कपड़े लत्ते... भले ही लड़का लड़की से कमतर हो। कई तो केवल डिग्रीधारी होते हैं पर निरे मूरख।
परिवार की गलत बातों और कुरीतियों के अंधे गुलाम। उन्हें भी बीवी तो पढ़ी-लिखी व स्टेटस वाली चाहिए, पर 'स्वाभिमानरहित'। मैंने तो ऐसा भी देखा कि कई घरों में बहुओं के जन्मदिन तक नहीं मनाए जाते जबकि घर के बाकी के सदस्यों के लिए पूजा-अर्चना, जश्न-तोहफे व पार्टी सभी होता है। और कई तो शादी के वक्त और पहले बार-बार कहते हैं कि हम तो बहू-बेटी में कोई अंतर नहीं करते। जैसी ये हमारी बेटियां, वैसी ही ये भी हैं, पर शादी होते ही सारे फंडे बदल जाते हैं।
'पहले घर के मर्द फिर घर की औरतें' वाली परिपाटी को पोसने के साथ-साथ सबसे आखिरी में बहुएं, जो बंधुआ मजदूर में बदल जाती हैं। भूख लगे तो अपनी इच्छा से खा भी नहीं सकतीं। अपनी मर्जी से पसंद के कपड़े तक नहीं पहन सकतीं। उनके हर संदूक, सूटकेस व अलमारियों पर चौकीदारी होती है। सारी ज्वेलरी व नकद जमा करा लिया जाता है। वो अपने पीहर में बात करे तो सबके कान लगे होते हैं।
अधनंगी घूमती बेटियों के बीच बहू का घूंघट या दुपट्टा अनिवार्यता की सीमा लांघ जाता है, जैसे घर के मर्दों की नीयत ख़राब हो। घोर आश्चर्य तो तब होता है, जब अनजान शहर में व अनजाने लोगों के बीच कोई बेटी अपने पति और उसके प्यार के भरोसे अपना सबकुछ छोड़कर चली आई है, वो भी वहां जाकर थोथी मर्दानगी का शिकार हो जाए और पराया निकले।
घर में घुसते ही उस नई-नवेली का स्वागत यह पूछकर किया जाए कि कितना सोना लाई, कितनी साड़ियां, कितना नकद लाई? कोई प्यार, सहानुभूति व संवेदना नहीं कि वो थक गई होगी, परेशान होगी, नए घर और लोगों में उसे संभलने दिया जाए, प्यार से विश्वास जीता जाए। नहीं जी। उन सबको उसकी पढ़ाई, उसकी योग्यता, उसकी उपलब्धियां, उसकी प्रसिद्धि से एक अजीब-सी जलन हो। उसको ताना मारें, नीचा दिखाएं, उसके माता-पिता को कोसें, जलील करें, नीचा दिखाएं, क्योंकि बेटियों में उनकी और उनमें बेटियों की जान जो बसती है। यही तो कमजोर कड़ी होती है।
उसके अपने भाई से बात करने में भी दिक्कत। पर अपने बेटे के कारनामे से बेखबर। उसकी महिला मित्र शादी में आकर के सम्मान पाती है। आधी रात में वो उससे चैटिंग करता, चुटकुले, फोटोज, अपनी पत्नी की शिकायतें, रातों को छुपकर फोन पर बातें करता। हद तो तब हो जाती है, जब वो अपनी सुहागरात की बातें महिला मित्रों को चटखारे लेकर सुनाता। मॉडर्न (?) है न? पढ़ा-लिखा (?) भी। अच्छा कमाता है, तो उसका तो हक़ है। पर पत्नी के फोन का पासवर्ड चाहिए। खुद का फोन छाती से चिपका रहेगा। कहीं पत्नी के हाथ न लग जाए।
पर अब समय बदल गया है। बेटियां सही-गलत समझती हैं और खूब समझती हैं। भले ही माता-पिता के संस्कारों के कारण वे आपकी काम वालियों के भी पैर पूरी श्रद्धा से छू लेती हों, पर वे गलत की असहनीयता पर आपके पैरों के नीचे से जमीन खींचना भी भली-भांति जानती हैं।
आपकी उम्र और रिश्तों का वे भले ही लिहाज करती हों, पर आपके मन के भीतर चल रही कुटिलता को भी खूब जानती हैं। आधुनिकता का खोल पहनने से कोई दिलो-दिमाग की सड़ांध की बदबू खुशबू में नहीं बदल जाती। बड़े होटलों में रिसेप्शन, महंगे पार्लर में मेकअप, झांकी मंडप-दिखावे में कोई कमी नहीं, पर घर पर हाथभर का पल्लू घूंघट जरूरी है।
बात-बात पर उसे आपका टोकना, कड़े घटिया लहजे में निर्देश-आदेश देना, उसके पहनावे पर टीका-टिप्पणी आपके दिमागी दिवालियेपन का सबूत ही है। दुखद यह है कि घर के बाकी सदस्य महिला-पुरुष व छोटे-बड़े सभी गाहे-बगाहे इसमें अपनी घटिया भूमिका निभाने से बाज नहीं आते।
और तो और, वे हमेशा उसे 'आउट साइडर' का एहसास कराने से नहीं चूकते। पर ऐसा करके आप अपने रिश्तों को अपने ही कर्मों से जहरीला बना रहे हैं, जो यह जहर तो फिर आपको ही पीना होगा। दु:खद यह है कि बड़ों की देखादेखी घर के छोटे सदस्य, ननद व देवर सहित सभी की नानी मरती है बहू को मान-सम्मान देने में।
लड़के वाले की लड़की वाले के प्रति यह मानसिकता इसमें और खटास बढ़ाती है। लड़का अपने घर पर बहू के सम्मान के लिए पत्नी के पक्ष में बोलना अपराध समझता है। बोला अगर तो 'घर में जोरू का गुलाम'। पर उसे अपने ससुराल में पूरी 'दामादगिरी', 'जी-हुजूरी' चाहिए। सबके सब हाथ बांधकर इनके आगे खड़े रहें इनकी सेवा में। भले ही ये नालायक हों। तो अब ऐसा नहीं होगा और जमाना बदल रहा है। कान लगाकर बदलते ज़माने की धुन सुनो। सुखी रहोगे।
जो बोते हैं वही फसल काटते हैं। तो जो और जैसा आप अपने लिए चाहते हैं, वो पहले आप उसे दीजिए जिसे आप जात, समाज और जमाने के सामने बड़ी शान से ब्याहकर लाए हैं। उसकी जरूरतें, मान-सम्मान, परवाह, वातावरण, प्यार, उसकी खुशियां सब आपकी जिम्मेदारियां हैं। उसकी कमाई (यदि वह कमाती है) पर यदि नीयत है तो आपके जैसा कापुरुष कोई नहीं। उससे भी बढ़कर यदि आप उसे 'तन, मन, धन' का सुख नहीं दे पाते तो पति कहलाने का कोई अधिकार नहीं रखते।
अब तो यही ठीक है कि सुधार की ओर कदम बढ़ाए जाएं। समय के साथ मानसिकता में तब्दीली लाई जाए। बेटे, बहू व बेटियों से समान व्यवहार और अपेक्षाएं की जाएं। अपने बेटे को भी पत्नी के माता-पिता और परिवारजनों के लिए सम्मान का भाव परवरिश में ही डाला जाए। वर्ना जब अपमान आक्रोश में, आक्रोश गुस्से में, गुस्सा नफरत में और नफरत बदले की आग में बदलता है तो किसी के हाथ कुछ नहीं लगता। जीवन नरक हो जाता है। बदनामी की कालिख अलग आपके मुंह पर लग जाती है।
संबंध हमेशा मधुर ही आनंद देते हैं। संपूर्ण इस धरती पर कोई मनुष्य नहीं है। एक-दूसरे की कमजोरी और ताकत ही उसके व्यक्तित्व के गुण हैं। पर केवल खुद को श्रेष्ठ मानना व दूसरे को जलील करना केवल 'वो लड़की है, लड़की वाले हैं' इसलिए तो भूल जाइए जनाब।
वो समर्थ है, उसके माता-पिता व परिवार आज अब उसके साथ उसके सुख-दु:ख व अच्छे-बुरे में उसके साथ खड़े रहते हैं। उन्हें आपकी व आपके परिवार की सभी हरकतों का पता होता है। हर लड़की में शिवांगी होती है, कुछ पहले निर्णय ले लेती है, कुछ फेरों के बाद, कुछ कभी भी, क्योंकि अब वे आजाद हैं, पढ़ी-लिखी सक्षम, आत्मनिर्भर, स्वविवेक से निर्णय लेने वाली, स्वाभिमानी निर्भया हो चली है।
तो होशियार! खबरदार!! जमाना बदल गया है...!!!