“जिस स्त्री की विवाह के पश्चात मायके से ऑनलाइन कोचिंग जारी रहती है... वो स्त्री "परिवार खंडन" की डिग्री शीघ्र ही प्राप्त कर लेती है...!!” ठीक इसका उलट भी तो होता है-जिस पुरुष की विवाह के पश्चात मायके से ऑनलाइन कोचिंग जारी रहती है...वो पुरुष "परिवार खंडन" की डिग्री शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है...!!”
हर थोड़े दिनों में ये लिखी पोस्ट नजरों के सामने से गुजरती है। कितनी सही बात है कितनी गलत ये तो जिन पर गुजरती होगी वही सच्चाई बता सकता है. पर यही चीज पुरुषों पर भी तो समान रूप से लागू होती है। हमेशा एकपक्षीय होना ही हमारी फितरत में शामिल क्यों है? हमने ऐसे भी कई दाम्पत्य टूटे देखे हैं जिनमें विवाहोपरांत परिजनों को बेटे बहू की खुशियां रास नहीं आतीं। उनके बीच जहर के बीज बोना, उनकी खुशियों में आग लगाना, उनके निजी समय में घुस कर स्यापा घोलना, बात बात पर मनहूसियत फैलाना, कोसना, बहू की बेइज्जती को जन्मसिद्ध अधिकार मानना, बेटा यदि बहू की परवाह करे तो जोरू का गुलाम घाघरा भगत। वे कहीं घूमने जाएं तो अपनी टांग बीच में फंसाना। उनकी हर चीज, हर बात, हर सामान पर अपना नियंत्रण, अंकुश रखना, उनके पंख काट के अपने स्वार्थ के पिंजरे में कैद करना ताकि वे जिंदगी के आसमान में अपनी उड़ान अपनी मर्जी से नहीं बल्कि इनके रिमोट से इनके पिंजरे में खिलौने जैसे जियें। ये किसकी कोचिंग है?
एक दौर था जब हर प्रतिस्पर्धा इस बात को लेकर होती थी कि किसका प्रेम ज्यादा बड़ा है, किसका त्याग ज्यादा बड़ा है, इस प्रतिस्पर्धा में हारने वाला हारकर भी हमेशा जीत जाता था क्योंकि वो कभी भी कुछ खोता नही था। एक आज का दौर है जब हर प्रतिस्पर्धा इस बात को लेकर होती है कि किसका अहंकार ज्यादा बड़ा है, किसकी नफरत ज्यादा बड़ी है, अब इस प्रतिस्पर्धा में जीतने वाला जीतकर भी हमेशा हार जाता है क्योंकि वो कभी भी कुछ पाता नही है।
इधर भी हाल कोई अच्छे नहीं है। लड़कियां/महिलाएं जबर्दस्त दिखाऊ बन गई हैं। गांव तक में नई-नई ब्याह कर आई लड़कियां मार मचाए हुई हैं डांसिंग क्लास की है, बॉलिवुडिया तर्ज पर अधनंगे कपड़ों में लेडी संगीत में धूम मचाती है लेकिन झाड़ू लगाना नहीं आता। कुकिंग क्लास की है, माइक्रोओवन में केक-बिस्किट बनाती है लेकिन तीनों वक्त का सादा भोजन/खिचड़ी/बघार लगाना/आटा गूंथना, नहीं आता। ग्रूमिंग क्लास की है लेकिन नाड़ा डालना, हुक-आइ,बटन टांकना, कच्चा टांका, तुरपन तो छोड़ सुई में धागा भी पिरोना नहीं आता। ब्यूटीशियन का कोर्स करके आई है लेकिन चरित्र संवारना नहीं आता। दिन भर मोबाईल पर हार्ट का इमोजी भेजते हैं सारे जमाने को पर घर के लोगों से प्रेम से बोला नहीं जाता। ये कोचिंग क्यों नहीं होती?
रिश्तों पर कैंची चलाने में “दोनों पक्षों के पीहरवालों की” अनावश्यक दखलंदाज़ी, संस्कार विहीन शिक्षा, आपसी तालमेल का अभाव, ज़ुबानदराज़ी, सहनशक्ति की कमी, आधुनिकता का आडम्बर, समाज का भय न होना, घमंड झूठे ज्ञान का, अपनों से अधिक गैरों की राय, परिवार से कटना, घंटों मोबाइल पर चिपके रहना, और घर गृहस्थी की तरफ ध्यान न देना, अहंकार के वशीभूत होना, दोगला कमजोर चरित्र क्या इसका जिम्मेदार नहीं? कहां होती है इसकी कोचिंग? मैंने तो कभी ऐसा कोई कोर्स या सिलेबस नहीं देखा।
आजकल सभी लड़कियों और उनके घर वालों को कम से कम लाख रूपया महीना कमाने वाला एक हैंडसम, रोमांटिक कमाऊ लड़का चाहिए जिसके माता-पिता उसके साथ नहीं रहते हों। एक मेड चाहिए, एक कुक चाहिए, एक गाड़ी और एक ड्राइवर चाहिए। हर शाम बाहर डिनर। अब तो तमाम सेवाएं उपलब्ध हैं घर बैठे आर्डर देने की। पति अपने कमाई में से जरा भी पैसे माता-पिता या परिवार को दे दे तो बवाल लेकिन वो ब्यूटी सैलून, जिम, ड्राइवर, मेड,ब्रांडेड अन्डर गार्मेंट पर पचास हज़ार फूंक देगी सिर्फ हॉट बेबी लगने के लिए। अपने पीहर वालों पर पैसा लुटाने में कोई हिचक नहीं। पति का पैसा हराम का और पीहर का पैसा मेहनत की कमाई लगता है इन्हें। भले ही पीहर वाले इन्हें बेवकूफ बना कर लूट रहे हों। इसकी कोचिंग के शिक्षाविद कहां के वासी हैं?
नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की। आज हर दिन किसी न किसी का घर खराब हो रहा है। कहते हैं कि हमारे बच्चे नाज़ों से पले हैं, आज तक हमने तिनका भी नहीं उठवाया। तो फिर करेंगे क्या शादी के बाद? शिक्षा के घमंड में बच्चों को आदरभाव, अच्छी बातें, घर के कामकाज सिखाना और परिवार चलाने के संस्कार नहीं दे पाते। मां खुद की रसोई से ज्यादा बेटे-बेटी के घर में क्या बना इस पर ध्यान देती हैं। भले ही खुद के घर में रसोई में सब्जी जल रही है। मोबाईल तो है ही रात दिन बात करने के लिए। फ़ोकट हैं, वीडियो कॉल भी चाहिए। छल कपट भी करना है। ससुराल वालों से कितना सच-झूठ करना है। क्या छुपाना-क्या बताना। दोनों पक्ष इस रस्साकशी से रिश्तों का दम घोंटता रहता है। अब बताएं जरा इसकी कोचिंग क्या एक तरफ़ा है? कहां हैं सारे “मेनेजमेंट गुरु”?
चतुराई, अपने लिए सब कुछ करने की वृति पैदा करती है और समझदारी, अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी कुछ न कुछ करने की वृति पैदा करती है और समस्या यही है कि समाज में "चतुराई" बढ़ रही है और "समझदारी" घट रही है। परिवार के लिए किसी के पास समय नहीं। टीवी, मोबाइल या फिर पड़ोसन से एक दूसरे की बुराई या फिर दूसरे के घरों में तांक-झांक। बुज़ुर्गों को तो बोझ समझते हैं। बड़े घरों का हाल तो और भी खराब है। कुत्ते बिल्ली के लिए समय है परिवार के लिए नहीं। दिन भर मनोरंजन, आधुनिकता तो होटलबाज़ी में है। बुज़ुर्ग तो हैं ही घर में बतौर चौकीदार। कहां हैं संस्कारों की कोचिंग?
पहले लोगों ने बहू को सताया और अब लोग बहू के नाम से ख़ौफ में है। क्योंकि पढीलिखी बहुएं बोलना जानतीं हैं। समझदार भी हैं। लड़कों की शादी के बाद पोर्न देखने की आदत, पराई औरतों से नाजायज संबंध, फ्रेंड्स के नाम पर चल रही नॉट्टी चैट, नशे-सुट्टे, काले कारनामे जो अब भी जारी हैं। परिवार वाले इसमें शामिल हैं। हो सकता है कि इसका उल्टा भी हो रहा हो। क्योंकि “हम किसी से कम नहीं” का झंडा भी तो सबको उठाना है। लेकिन अब तो फैशन हो गया। सबसे खतरनाक है ज़ुबान और भाषा, जिस पर अब कोई नियंत्रण नहीं रखना चाहता। ससुराल में बहुओं को यदि सर्वसुविधा है (भले ही उनके पीहर में वे महरी की तरह रहीं हों) तो उन्हें वो भी कम ही लगती है। खुद में भले ही कोई गुण न हो। और फिर कानून तो है ही डराने को... इसकी डिग्री या कोचिंग कौन दे रहा?
इस नए दौर के रिवाजों का इतना गहरा असर है कि अब हर उस जज्बात, हर उस अहसास जो हम इंसानों की बुनियादी जरूरत है उसकी एक कीमत तय होती है और यह कीमत हमारा अपना वजूद, हमारी अपनी शख्सियत है…गर हम अपना वजूद, अपनी शख्सियत न बदलें, यह कीमत न चुकाएं तो वो जज़्बात, वो अहसास कभी नहीं मिलते और गर हम अपना वजूद, अपनी शख्सियत बदल लें, यह कीमत चुका दें तो खुद में खुद का कुछ भी बाकी नहीं रहता...
तो फिर क्या करें...क्योकि इन्हें चाहिए आजादी...हर जिम्मेदारी/रिश्तों से आजादी...इंसानियत से आजादी...सभी को चाहिए आजादी...बस आजाद नहीं होना है तो जिंदगी की मृगतृष्णा से जिसने जिंदगी को मौत से ज्यादा बदतर किया हुआ है....