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बीएमडब्ल्यू से उपजे प्रश्न...

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मनोज श्रीवास्तव

दीपा देश की पहली महिला जिमनास्ट हैं जिन्होंने ओलिम्पिक का टेस्ट इवेंट क्वालीफाई किया और फिर फाइनल में प्रवेश किया। रियो ओलिम्पिक में दीपा कर्मकार एकमात्र प्रतिभागी थी, जिन्होंने सबसे कठिन और खतरनाक प्रॉडुनोवा वाल्ट के जरिए फाइनल में जगह बनाई थी।


 

दो बार की गोल्ड विजेता अमेरिकन जिमनास्ट सिमोन बाइल्स जिन्होंने इस बार भी गोल्ड प्राप्त किया, वो भी प्रॉडुनोवा से कन्नी काट गई थी। माना जाता है कि प्रॉडुनोवा इवेंट जिमनास्ट का डेथ वॉल्ट है। कठिनाइयों का उच्चतम स्तर होने के कारण इसमें अधिक अंक मिलने के चांस होते हैं पर खतरनाक इतना माना जाता है कि गर्दन की हड्डी टूटने पर जान जाने का भी खतरा रहता है। चूंकि दीपा अंकों में पिछड़ रही थी तो शायद उन्होंने रिस्क लिया और फाइनलिस्ट में जगह बना कर देश का नाम रोशन कर दिया।
 
देखा जाए तो दीपा के लिए मौत के अंधरे में दीप जलाना आसान था पर इनाम में मिली बीएमडब्लू कार ने प्रोडूनवा वीर दीपा को हरा दिया। दीपा प्रॉडूनवा से पार पा-गई लेकिन बीएमडब्ल्यू के वॉल्ट से हार गई। चर्चा है कि अगरतला की सड़कें, छोटी गलियां और बीएमडब्ल्यू जैसी मंहगी कार के खर्चीले रखरखाव ने ऐसा वॉल्ट बनाया कि दीपा के लिए कार की ख़ुशी कलाबाजी खा-गई और वे बीएमडब्ल्यू के वॉल्ट को पार न कर सकी!
 
सोंचने की एक बात और है कि यदि सामान्य भारतीय के लिए कार को रखना मंहगा है तो चलाना कितना दुष्कर होगा, फिर ऊपर से टोल-टेक्स तो जजिया कर की तरह प्रतीत होता है और इस स्थित से देखें तो जायज भी नहीं लगता। प्रजातन्त्र में सड़क पर चलने का टैक्स कुछ अजीब सा-लगता है। यदि सरकार सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य से भी हाथ खींच लेगी तो करने को बचेगा क्या? ऐसे में लगता है कि हम लोक कल्याणकारी राज्य को भूलने के साथ प्रजातन्त्र की अवधारणा से भी दूर चले जाएंगे। खैर फिलवक्त प्रश्न यही है कि बीएमडब्ल्यू का वॉल्ट दीपा के लिए प्रश्नचिन्ह है या हमारे लिए?
 
बीएमडब्लू जैसी मंहगी और कीमती कार को गिफ्ट में लेने को तैयार नहीं होना भी एक प्रश्न है जो दर्शाता है कि हकीकत कितनी जुदा है। एक वर्ग खुद को इस योग्य नहीं समझता है कि वो चमकदार जीवन को हकीकत मान ले। महंगे उपहार को अस्वीकारना एक तरह से सपनों का टूटना है; क्योंकि सपने हमेशा हकीकत के आगे हार जाते हैं। ये स्थिति देश के लिए देखे गए सपने को टूटने के अहसास से भी जुडी़ है, लगता है अभी देश को बहुत दूर तक चलना है, तब जाकर तस्वीर बदलेगी। पर उसके पहले जमीनी हकीकत को समझना जरूरी है, तभी कामयाबी मिल सकती है। 
 
लगता है अभी भी हम उसी मुकाम पर खड़े हैं जिधर से कि हम चले थे! हमारा एक वर्ग अभी वहीं खड़ा है जहां उसे हमने छोड़ा था। उसका हाथ हमसे इस भीड़ में छूट गया है। वो एक अजनबी की तरह इस चकाचौंध में हमसे बिछुड़ कर बेबस अनुभव कर रहा है। तमाम योग्यता होते हुए भी वह असहाय है। उसकी क्षमता, उसकी अदम्य इच्छा शक्ति, एक पल के लिए इस माया के सामने हतप्रभ है। माया का जाल उसे घेरकर पुनः पथरीले अहसास से भर देता है। वो छटपटा कर इससे बाहर निकलने के प्रयास में किस्मत से लड़ना चाहता है, पर उसके लिए उसे जो सहायता चाहिए वो सहायता शायद उसे उपलब्ध नहीं है या उपलब्ध नहीं ही पा-रही है। 
 
यह चिंतनीय स्थिति है और इस पर विचार किया जाना चाहिए। इसके समाधान में ही देश का उज्ज्वल भविष्य छुपा है। इस कमतरी के साथ चलकर हम लम्बी दूरी तय कर पाएंगे इसमें शंका सन्निहित है। यह कमतरी अपने आप में एक प्रश्न चिन्ह है। वर्गभेद के साथ एक सबल और सक्षम देश का सपना पूरा नहीं हो पाएगा। अंतिम पंक्ति का हरेक व्यक्ति इस वर्गभेद कि अवस्था से बाहर आने को बेचैन है, पर एक अकेला इस हालात में लाचार है।

इस लड़ाई में उसे पुनः हमारा साथ चाहिए, उसकी ओर हाथ दीजिए। उसे इस चक्र से निकालिए तभी उसके अपने सपने पूरे होंगे तभी वो सांस को अपने अंदर महसूस करेगा और यही उसके लिए नया जीवन होगा। और उस दिन उसे मंहगे उपहार अपने लायक लगेंगे, फिर वो उन्हें अपना लेगा।

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