क्या कभी यह संभव है कि दुनिया के लोग इतने स्वस्थ और प्रसन्न हो जाएं कि उनके दिमाग में कभी कोई शिकायत ही न आए। पर इसका आशय यह नहीं माना जाना चाहिए कि स्वस्थ और प्रसन्न लोगों की कोई शिकायत ही नहीं होती।
मनुष्य ऐसा प्राणी है जिसे दूसरे तो छोड़िए, अपने आपसे भी शिकायत हो सकती है। इस दुनिया में शायद ही कोई मनुष्य हो, जो जीवन में केवल दुख पाना चाहता हो। पर उसे दुख की प्राप्ति नहीं हो पा रही हो तो वह शिकायत करे कि उसे दुख की प्राप्ति नहीं हो रही है, क्योंकि शिकायत अकेले सुख-दुख को लेकर ही नहीं किसी भी बिंदु पर हो सकती है।
पर यह भी सत्य है कि हम हमारे जीवन में स्वेच्छा से कभी दुख की चाहना करते ही नहीं, हमेशा सुख-समृद्धि की ही चाहना करते हैं और प्राय: हमारी सुख-समृद्धि की चाहना पूर्ण नहीं हो पाती और हम दुखी या शिकायती हो जाते हैं। तो क्या हम सिद्धांतत: यह मान सकते हैं कि हमारी चाहना ही यह तय करती है कि हम दुखी होंगे या सुखी? इस अनंत संसार में हम मनुष्य रूप में जन्मे, यह हम सब मनुष्यों के लिए सबसे समाधानकारक बात है।
यह भी माना जा सकता है कि इस संसार में मनुष्य रूप में पैदा होना मनुष्य को कुदरत का सबसे बड़ा पुरस्कार है। फिर भी शायद हम में से लगभग हर कोई अपने समूचे जीवन में कुछ न कुछ विशिष्टता पाने की चाह अपने अंतरमन में छोटे-बड़े रूप में रखते ही है।
जब कुछ पाने की या निरंतर कुछ-न-कुछ पाते रहने की अंतहीन चाह हमारे अंतरमन का स्थायी भाव बन जाती है तो हमारे जीवन में अक्सर शिकायती भाव का प्रादुर्भाव होता है और धीरे-धीरे हम छोटी-मोटी शिकायतों से प्रारंभ कर जीवनभर तरह-तरह के तर्कों के साथ शिकायतों को अपनी चाहनापूर्ति का साधन बना बैठते हैं।
मनुष्य शिकायत को अपनी चाहना पूरी करने का एक साधन मान लेता है तो उसका समूचा जीवन शिकायती दिशा में प्रवृत्त होने लगता है। इसी बिंदु पर हम सब जीवन को कुछ न कुछ पाने या न पाने का क्रम मात्र समझ लेते हैं। हम सब मनुष्यों की दुनिया एक तरह से हम सब की अंतहीन शिकायतों का समाज बनकर रह गई है। आज के कालखंड ने दुनिया के सारे मनुष्यों के सामने यह चुनौती खड़ी है कि हम सब हिल-मिलकर आज की दुनिया के मनुष्यों की शिकायतों का समाधान करें।
आदिम युग से लेकर आज की आधुनिक कालखंड की दुनिया के मन और जीवन में एक-दूसरे को लेकर तरह-तरह के विचारों, आस्था, विश्वास, धर्म, राजनीति, सामाजिक आर्थिक असमानता, शासन-प्रशासन, राज, व्यवस्था और सोच के तौर-तरीके को लेकर एक-दूसरे के प्रति जो परस्पर शिकायतें हैं, क्या आज के कालखंड का मनुष्य समाज इन असंख्य शिकायतों का समाधान कर सकता है?
ऐसी शिकायतों का समाधान किया जाना चाहिए, ऐसा विचार भी मन में ला सकता है। एक-दूसरे पर अंगुली उठाकर, एक-दूसरे की शिकायतें कायम रखते हुए आजीवन एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हुए अपनी-अपनी शिकायतों के साथ निरंतर दुनिया से बिदा होते रहने को हम सब अपनी नियति बना रहे हैं।
यहां एक सवाल मन में यह भी उठता है कि मनुष्यों की दुनिया की सारी शिकायतें जब मनुष्यों के परस्पर कार्यों और व्यवहारों को लेकर ही हैं तो आज तक मनुष्यों के पास यह क्षमता या समझ संसार का सर्वाधिक विचारवान प्राणी होने के बाद भी क्यों नहीं विकसित हुई कि शिकायतों का हाथोहाथ समाधान हो सके।
अपनी छोटी-मोटी चाहनाओं से निर्मित शिकायतों का निरंतर समाधान करने की कार्यशैली मनुष्य समाज हासिल क्यों नहीं कर पाया? जबकि हमारी इस दुनिया के मनुष्य से अलग किसी भी अन्य प्राणी ने किसी भी तरह की कोई शिकायत मनुष्य या समूचे मनुष्य समाज से कभी भी की ही नहीं। क्या यह माना जाए कि इस दुनिया के अन्य सारे प्राणी अपने-अपने जीवन को सहज जीवन के रूप में जीते हैं? फिर हम जीवन को उसके प्राकृत स्वरूप में जीना क्यों भुला बैठे?
हमारे इस अनंत ब्रम्हाण्ड में जो असंख्य ऊर्जावान पिंड गतिशील होकर अपने-अपने निर्धारित मार्ग पर ही भ्रमणशील रहते हैं, आपस में प्राय: टकराते नहीं फिर उसी ऊर्जा के जैविक स्वरूप मनुष्य के मन की रचना ऐसी क्यों है कि अनंत काल से जीवनभर एक-दूसरे से वैचारिक रूप से टकराती भी है और जीवन की साधना, शांति और आनंद को लेकर न जाने कितने मत-मतांतर रचती भी रहती है।
हमारी धरती और उसके विविधतापूर्ण रूपों में असंख्य जीव, वनस्पति और जीवनी शक्ति के अंतहीन स्वरूप का सान्निध्य संपर्क हम मनुष्यों को अपने जीवनकाल में कुदरत ने खुलकर दिया, फिर भी हम सब मनुष्य जीवन के विराट स्वरूप को छोड़ अपनी डफली अपना राग को पकड़कर शिकायतविहीन धरती पर जीवन का आनंद लेने से वंचित हो रहे हैं। अपनी चाहना और अपने राग पर स्वनियंत्रण से ही शायद शिकायतविहीन दुनिया का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
एक सवाल मन में यह भी उठता है कि यदि समाज व जीवन में शिकायतें ही नहीं होंगी तो मनुष्य एक-दूसरे को समझेगा कैसे? और समाज के विभिन्न लोगों की चाहना या सवालों को समझेगा कैसे? यह भी सवाल खड़ा हो सकता है कि शिकायतें ही न होंगी तो समाधान कैसे सोचेंगे?
तब चिंतन में यह सूत्र मिलता है कि मनुष्यों की व्यक्तिगत और सामूहिक शिकायतें संसद के ध्यानाकर्षण सवाल जैसी है जो जीवन के हर कालखंड का मनुष्य उस कालखंड के मनुष्य और समाज के सामने समाधान या चिंतन हेतु प्रस्तुत कर सकता है।
शिकायतविहीन दुनिया का पर्यायवाची अर्थ समाधानमूलक दुनिया ही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी दुनिया के हर मनुष्य को हर तरह का सवाल खड़ा करने का पैदाइशी अधिकार है, पर व्यक्ति, समाज और राज्य व्यवस्था के पास शिकायतों को अनदेखा या पटक रखने का कोई अधिकार नहीं है। हर दिन सवाल और हर दिन समाधान ही शिकायतविहीन दुनिया का साकार स्वरूप है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)