बस 'एक' पुरुष की 'एक' टिप्पणी। और कटघरे में है समूची पुरुष मानसिकता.. समाज की सोच और अभिव्यक्ति की आजादी... किसने किससे कब और कहां कहा या लिखा इस पर बाद में बात करते हैं पहले आप टिप्पणी तो जान लीजिए....
'क्या आप कोई कोल्ड ड्रिंक की बोतल या बिस्किट का पैकेट खरीदते वक्त सील टूटी होने पर भी उसे खरीद लेते हैं? एक लड़की जन्म से ही बायलॉजिकली सील होती है जब तक उसे खोला न जाए। वर्जिन लड़की में बहुत से मूल्य होते हैं, जैसे कल्चर, सेक्सुअल हाइजीन।'
यहां से बात कैसे शुरू की जाए, सोच रहे हैं हम? देह दर्शन, वर्जना, नियम, उपयोग, उपभोग और लांछन के सारे बंधनों को तोड़कर हम भाषिक स्तर पर इतने दरिद्र हो गए हैं कि स्त्री को 'वस्तु' बनाकर 'वस्तु' से ही तुलना के लिए बाध्य हो गए हैं। यह हैं पश्चिम बंगाल की जादवपुर यूनिवर्सिटी में इंटरनैशनल रिलेशन्स पढ़ाने वाले प्रोफेसर कनक सरकार जिनका मानना है कि एक लड़की और उसकी वर्जिनिटी का मोल इतना ही है जैसा किसी बोतल का या पैकेट का...सील टूटने के बाद वह डिस्पोजल है...किसी काम की नहीं...
स्त्री है क्या प्रोफेसर साहब? एक शरीर, देह, हाड़-मांस का पुतला... कहां होती है उसमें संवेदनाएं, सोच, विचार शक्ति? उसके सृजनात्मक गुणों की बात करना तो खैर बेमानी है.. अभी तो उसे अपने जीने के और आपके समाज में रहने के 'सलीके' सीखने हैं.. मर्यादा, गरिमा, शिष्टता, शालीनता,पवित्रता, शुचिता सब के सब शब्द सदियों से उसी के पल्लू में बांध दिए गए हैं.. 'काठ की हांडी' की कहावत से आगे चलकर यह कहावत 'सीलबंद बोतल' तक आ पंहुची है और सोच???? सोच कितनी प्रगतिशील हुई है? सोच वहीं उसी जगह पर पड़ी कराह रही है.. ना डिग्रियों के पुलिंदे उसे बहला सके, ना शिक्षा का अतिरेक उसके पैरहन बदल सका...
क्या किसी ने काठ की हांडी(काठ की हांडी चुल्हे पर बार-बार नहीं चढ़ती) पर मुंहतोड़ कहावत बनाई थी कि एक बार जल गया तो फिर न चल सकेगा? नहीं... क्योंकि भाषा की मर्यादा तोड़ना भी सिर्फ आप जैसे पुरुषों के हिस्से में आया है हम स्त्रियों के नहीं? अगर वक्त पर काठ की हांडी का जवाब दे दिया गया होता तो शायद बात सीलबंद बोतल और पैकेट तक नहीं आ पाती.. गलती उसी स्त्री की है जो न जवाब देती है ना जाहिल सोच के खिलाफ मुंह खोलती है... कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं.. स्व मर्यादा की बात करना भी समय की बर्बादी है... फालतु है आपको वे नाम गिनाना जो अपनी देह से परे हर प्रतिमान गढ़ रही हैं, हर कीर्तिमान रच रही हैं... मगर क्या होता है उससे उसकी कीमत, उसकी औकात बस इतनी ही तो है कि वह सीलबंद है या नहीं? इस सोच के वाहक आप प्रोफेसर है... गहन गंभीर विषय पढ़ाते हैं और अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई दे रहे हैं... इसी दुहाई के नाम पर अगर स्त्रियां बोलने लगे तो यकीन कीजिए कि मर्दों के भ्रष्ट आचरण के खिलाफ इतनी कहावतें, इतनी उपमाएं, इतनी गालियां निकल आएगीं कि आपको उस टिप्पणी से खुद ही शर्म आने लगेगी जिस पर अभी आप बेशर्मी से कायम है।
शर्मनाक टिप्पणी करने वाले कनक पिछले 20 वर्षों से इंटरनैशनल रिलेशन्स पढ़ा रहे हैं। विवाद के बाद उनका कहना है, मैंने अपने व्यक्तिगत विचार लिखे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट के सेक्शन 66A को वापस ले लिया है और सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार दे दिया है... मैंने किसी व्यक्ति के खिलाफ बिना किसी सबूत के नहीं लिखा है। मैं सोशल रिसर्च कर रहा हूं और समाज की अच्छाई और भलाई के लिए लिख रहा हूं...
हैरानी इस बात की है कि आप सोशल रिसर्च के दावे कर रहे हैं और यह भी नहीं जानते कि समाज की अच्छाई और भलाई में यह गिरी हुई सोच फफूंद है.. इस सोच से समाज फिर एक बार सोचने को विवश हुआ है कि हम कहां से चले थे कहां तक पंहुचे हैं या सिर्फ हम शरीर को आगे बढ़ा रहे हैं एक सदी से दूसरी सदी तक.. विचार तो वहीं पड़े हैं सड़े-गले और बदबू मारते हुए...
क्यों न आपकी ही भाषा में आपके ही स्तर की एक 'कहावत', एक उपमा, एक अलंकार आपको भी नवाजा जाए... आखिर सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार हमें भी तो दिया है।